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ज्ञानसार
सकेगा !
कर्मो की क्रूर-लीला भला कहाँ तक संभव है ? सिर्फ ग्यारहवे गुणस्थान तक ! वहाँ चौदह पूर्व के ज्ञानी भुतकेवलियों की पराजय भी अवश्यंभावी है । अर्थात चौदह पूर्वघर-श्रुतकेवली भी प्रमाद के वशीभत हो, अनादि काल तक निगोद में रहते हैं । न जाने कर्मों की यह कैसी भीषणता-भयानकता है ! ऐसे कर्म विपाकों का ससत-चिंतन मनन कर, उस के क्षयहेतु कमर कसनी चाहिए ।
अर्वाक सर्वाऽपि सामग्री प्रान्तेव परितिष्ठति ।
विपाकःकर्मणः कार्यपर्यन्तमनुधावति ॥६॥१६६॥ अर्थ : हमारे निकट रही सभी सामग्री/कारण, एकाध थके हुए प्राणी की
तरह सुस्त रहती है । जबकि कर्म-विपाक कार्य के अंत तक हमा
पीछा करता है । विवेचन : कर्म-विपाक का अर्थ है कर्म का परिणाम/फल ! कोई कार्य बिना किसी कारण के नहीं बनता और हर कार्य के पीछे पाँच कारण होते हैं : .१ काल २ स्वभाव ३ भवितव्यता ४ कर्म और ५ पुरुषार्थ
लेकिन इन सब में 'कर्म' प्रधान कारण है ! कर्म-विपाक कार्य के अंत तक हमारा पीछा नहीं छोडता, बल्कि सतत छाया की तरह साथ रहता है। शेष सभी कारण थोडा-बहुत चलकर इधर-उधर हो जाते हैं, लेकिन यह निरंतर पीछे ही लगा रहता है । कोइ किसी कार्य की भूमिका तैय्यार करता है, कोई कार्यारम्भ कराता है, कोई कार्य के बीच ही थक कर एक ओर हो जाता है । लेकिन कर्म कभी थकता नहीं है । जब तक कोई कार्य पैदा होता है और खत्म-(नाश) होता है, तब तक कर्म साथ ही चलता है । इसे कभी विश्राम नहीं, विराम नहीं पौर आराम नहीं।
- व्यक्ति को जितना भय अन्य कारणों से नहीं, उतना भय कर्म का होता है । कर्म-क्षय होते ही अन्य चार कारण अपने आप लोप हो जाते है । उन्हें दूर करने के लिए किसो प्रकार की मेहनत नहीं करनी पडती ! ये सब कर्म के पीछे होते हैं ।
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