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कर्मविपाक-चिन्तन
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दुखं प्राप्य न दीनं स्यात् सुखं प्राप्य च विस्मितः !
मुनिः कर्मविपाकस्य जानन् परवशं जगत् ॥१॥१६॥ अर्थ : कर्मविपाकाधीन जगत से परिचित होकर साधु दुःख पाकर दीन नहीं
होता, ना ही सुख पाकर विस्मित! विवेचन : संपूर्ण जगत् !
कर्मों की अधीनता !
कर्म के अधीन कोई दीन है, कोई हीन है ! कोई मिथ्याभिमानी है ! कोई दर-दर भटकता है तो कोई घर-घर भीख मांगता है। कोई गगन-चुम्बी अट्टालिकाओं में इठलाता-इतराता है तो कोई प्रिय-परिजन के वियोग में करूण क्रंदन करता है ! कोई इष्ट के संयोग में स्नेह •का संवनन करता है तो कोई पत्र-परिवार की विरहाग्नि में निरंतर धू-धू जलता है । कोई रोग-बीमारी से त्रस्त हो छटपटाता है, विलाप करता है तो कोई निरोगी काया के उन्माद में प्रलाप करता है !
कर्म के ये कैसे कठोर विपाक हैं ? ज्ञानावरणीय कर्म के विपाक से अज्ञान, मुर्खता और मुढता का जन्म होता है । दर्शनावरणीय-कर्म के उदय से घोर निद्रा, अंधापन, मिथ्या-प्रतिभास का शिकार बनता है! जबकि मोहनीयकर्म के विपाक तो अत्यंत भयंकर और असहनीय होते हैं कि बात ही न पूछो ! बिलकुल विपरीत समझ होती है! परमात्मा, सद्गुरू और सद्धर्म के सम्बंध में एकदम उलटी कल्पना ! वह हितैषी को दुश्मन मानता है और दुश्मन को गहरा दोस्त ! क्रोध से लालपीला हो जाएं और अभिमान के शिखर पर प्रारूढ हो, फिसल पडता है ! साथ ही, मोह-जाल बिछाता है । लोभ-फणिघर के साथ खेलता है ! न जाने मोहनीय कर्म के विपाक कैसे भयानक हैं ! बात-बात में भय और नाराजगी ! क्षण में हर्ष और क्षण में शोक ! हरदम डर और हरदम जुगुप्सा ! पुरुष को स्त्री-समागम की तीव्र लालसा और स्त्री को पुरूष-देह की अभिलाषा ! जब कि नपुंसक को स्त्री-पुरुष-दोनों का आकर्षण ! अंतरायकर्म के विपाक भी जटिल और निश्चित हैं ! पास में वस्तु हो, लेने वाला सुयोग्य-सुपात्र व्यक्ति हो, लेकिन देने की इच्छा नहीं होती ! सामने वस्तु हो, मन पसन्द हों, फिर भी प्राप्त नहीं होती ।लाडी (नारो) गाडी (वाहन) और वाडो (बंगला) होते
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