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विवेचन : ऊँट के अट्ठारह वक्र । कर्म के अनंत वक्र ।
सर्वत्र विषमता ! जहाँ देखो वहाँ विषमता ! कहीं भी समानता के दर्शन नहीं ! समानता जैसे मृगजल बन गई है ! मतलब कर्मों मे सर्जित दुनिया विषमता से लबालब भरी हुई है । जहाँ नमूने के लिए भी समानता नहीं ! जाति की विषमता.... कुल की विषमता.... शरीर, विज्ञान, आयुष्य, बल, उपभोगादि सभी में विषमता । ऐसी कर्मसर्जित घिनौनी दुनिया से त्यागी-योगी को भला प्रीति कैसी ?
* विश्व में विषमता के दर्शन करो ।
* विषमता के दर्शन से विश्व के प्रति रही प्रीति और आस्था छिन्न-भिन्न होते देर न लगेगी ।
* फलतः, प्रासक्ति का प्रमाण कम होगा !
* उससे हिंसा, झूठ, चोरी, वामाचार, बलात्कार और परिग्रह के असंख्य पाप नष्ट हो जाएंगे ।
* तब मोक्षमार्ग की ओर दृष्टि जायेगी ।
* कर्मबंधन तोडने का पुरूषार्थ होगा ।
* किसी भी जीव के दुःख के तुम निमित्त नहीं बनोगें ।
* और तुम योगी बन जानोगे ।
परमादरणीय उमास्वातिजी ने अपने ग्रंथ 'प्रशमरति' में कहा है :
जातिकुल देहविज्ञानायुर्बल- भोग- मूतिवैषम्यम् ।
दृष्ट्वा कथमिह विदेषां भवसंसारे रतिर्भवति ?
ज्ञानसार
"जाति, कुल, शरीर, विज्ञान, प्रायुष्य, बल एवं भोग की विषमताओं को देखते हुए, जन्म-मृत्यु रूपी संसार के प्रति भला, विद्वद्जनों का स्नेह-भाव कैसे संभव है ?"
यदि आप को अपनी जात-पांत की उच्चता में खुशी होती है, कुल की महत्ता गाने में प्रानन्द मिलता है, स्व-शरीर को देख-देख कर हर्ष के फव्वारे फूटते हैं, अपने कला-विज्ञान का महसास कर मन प्रफुल्लित होता है, खुद की आयु पर दृढ विश्वास है, अपने द्रव्य-बल, शरीर-बल, और स्वजन बल पर गौरव है, भोग-सुख की ललक है, तो मान लेना
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