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सर्वसमृद्धि
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श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण है । गुणसृष्टि के सर्जन में किसी बाह्य कारण की अपेक्षा ही नहीं रहती ।
बाह्य दुनिया के सर्जन में न जाने कितना पराश्रयपन ! एक मकान खड़ा करने में, नारी की स्नेह-दृष्टि प्राप्त करने में, धन-संपत्ति संचय करने में, सगे-संबंधी तथा मित्र-परिवार के साथ सम्बन्ध बांधने में.... प्रात्मा से भिन्न ऐसे जड़-चेतन पदार्थों के बिना भला, चल सकता है क्या ? इन पदार्थों के लिए कितने राग-द्वेष और असत्य के फाग खेलने पड़ते हैं ? जो भी झगड़े और क्लेश होते हैं इन पर-पदार्थों के कारण ही होते हैं । ठीक वैसे ही, जीवमात्र की सुख-शांति और वैभव की सारी कल्पनाएँ इसी पर-पदार्थो को लेकर ही हैं ! और हमारे जीवन में पर-पदार्थों की अपेक्षा ऐसी तो रूढ बन गई है कि उसके बिना संसार में जीव जो नहीं सकता, वस्तुतः उस का जीना असंभव है ।
मुनिराज जिस अनुपात में साधना-आराधना के मार्ग में आगे बढ़ते हैं, ठीक उसी अनुपात में पर-पदार्थ की सहायता के बिना जीवन व्यतीत करने का प्रयत्न करते हैं। जैसे भी संभव हो कम से कम परपदार्थों की सहायता लेते हैं । साथ ही, प्रांतरिक गुणसष्टि का इस तरह सर्जन करते हैं कि जिसके बल पर नित्य स्वतंत्र और निर्भय जीवन जी सकें। उनकी सृष्टि में प्रलय के लिए कोई स्थान नहीं, जब कि ब्रह्मा द्वारा रचित सष्टि में प्रलय और उल्कापात की पूरी संभावना है । प्रलय अर्थात् सर्वनाश ! आत्मगुणमय सृष्टि में जब जीवन का प्रारम्भ होता है तब किसी प्रकार की कोई अपेक्षा नहीं होती, बल्कि सर्वथा निरपेक्ष जीवन ! मतलब कोई राग-द्वेष नहीं, झगड़े-फसाद नहीं ! सुख-दुःख का द्वंद्व नहीं।
ब्रह्माजी की सृष्टि की तुलना में मुनिराज की सृष्टि कितनी भव्य, दिव्य और अलौकिक होती है। इस सृष्टि में सुख, शांति, निर्भयता और विशाल समृद्धि का भंडार होता है कि जीव को पूर्ण तृप्ति हो जाय !
अतः हे मुनिराज ! आप तो सृष्टि के सर्जनहार ब्रह्माजी से भी महान् हैं ! कष्ट, दुःख, वेदना और नारकीय यातनाओं से युक्त ब्रह्मा की दुनिया के बजाय आप कैसी अनुपम, अलौकिक, अनंत सुख, आनंद और पूर्ण रूप से स्वायत्त, गुणसृष्टि का सृजन करते हैं ! अब तो आपको अपनी महत्ता, स्थान और शक्ति का अहसास हुआ या नहीं ?
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