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अनात्मशंसा
२५७ प्रात्मप्रशंसा के मिथ्याभिमान से बचने के लिये ज्ञानी पुरुषों ने दो उपाय सुझाये हैं । मोक्ष-मार्ग की ओर जिसने प्रयाण शुरू कर दिया है, व्रत-महाव्रतमय जीवन जीने का जिस ने संकल्प कर लिया है और जो तपश्चर्या तथा त्याग का उच्च मुल्यांकन करते हैं, ऐसी मुमुक्षु आत्माओं को चाहिए कि वे हमेशा स्वप्रशंसा के पाप से बचने का पुरुषार्थ करें । उसके लिये उन्हें पुद्गल-पर्यायों का गुरण-गान करना बन्द करना चाहिये । सदा-सर्वदा ज्ञानानन्द के अतल सरोवर में निमग्न हो जाना चाहिये ।
सावधान ! स्व-प्रशंसा के साथ पर-निन्दा प्रायः जुड़ी हुई होती है। एक बार स्व-प्रशंसा एवं परनिन्दा का आनन्द प्राप्त होने लगा कि ज्ञानानन्द का प्रवाह मंद होने लगेगा, वैसे-वैसे प्रात्म-तत्त्व का विस्मरण होता जाएगा और तुम्हारे जीवन में पुदगल-तत्त्व प्रधान बन जाएगा।
-मुनि तो चिदानन्दघन होता है । -उसे पर-पर्याय का अभिमान नहीं होता। - वह ज्ञानानन्द-महोदधि में विलसित रहता है । -मुनि को निरभिमानता इसीलिये होती है। शुद्धाः प्रत्यास्मसाम्येन, पर्यायाः परिभाविताः ।
प्रशुद्धाश्चापकृष्टत्वाद्, नोत्कर्षाय महामुनेः ॥६॥१४२।।... अर्थ : प्रत्येक आत्मा में शुद्ध घर की दृष्टि से प्रपाणित शुद्ध-पर्याय समान
हा से निभान होने हैं और अशुद्ध-विभावपर्याय तुच्छ होने से महामुनि [सभी नयों में मध्यस्थ परिणति वाले] उस पर कभी
अभिमान नहीं करते । विवेचन :- महामुनि तत्त्वचिन्तन के माध्यम से अभिमान पर विजयश्री प्राप्त करते हैं । न जाने यह चिन्तन कैसा तो अद्भुत, अपूर्व और सत्य है, यहो तो देखना है । ___ महामुनि शुद्ध नय की दृष्टि से प्रात्म-दर्शन करते हैं। पहले अपनी प्रात्मा का देखते हैं, बाद में अन्य प्रात्माओं को देखते हैं । उनको किसी प्रकार का भेद ...अन्तर....उच्च-नोचता....भारी-हल्कापन का दर्शन
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