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ज्ञानसार
विवेचन : परपर्याय !
आत्मा से जो पर है, भिन्न है, उसके पर्याय । शारिरीक सौन्दर्य, रूप-लावण्य, ग्राम-नगर, उद्यान, धन-धान्यादि संपदा और पुत्र-पौत्रादि....ये सब पर-पर्याय हैं । प्रात्मा से भिन्न जो पुद्गल हैं यह उसकी सृष्टि है । पुद्गल की ये परिवर्तनशील अवस्थायें हैं । ___आत्मन् ! पुद्गल की इन रचनामों से भला, तुझे क्या लेना-देना ? जरा, ध्यान से सुन । ये कोई तेरी अपनी अवस्थायें नहीं हैं, ना ही तेरी सृष्टि ! ये तो 'पर' हैं, परायी हैं । मतलब, जो कुछ भी है, दूसरों का है। इनकी समृद्धि से तू अपने आप को श्रीमंत-समृद्ध न मान । ना ही इन पर मिथ्या अभिमान कर । इसके अभिमान से उत्पन्न प्रानन्द तुम्हारे किसी काम का नहीं है । अत: बेहतर यही है कि तुम इससे सर्वथा अलिप्त रहो ।
हे चिदानन्दधन ! तुम ज्ञानानन्द से परिपूर्ण हो । पुदगलानन्द का सारा विष नष्ट हो गया है । ज्ञानानन्द की मस्ती की तुलना में तुम्हें इन पद्गलों की परिवर्तनशील अवस्थाओं से प्राप्त प्रानन्द तुच्छ प्रतीत होता है । वह आनन्द नहीं, बल्कि नीरा पागलपन लगता है । सारी दुनिया भले ही तुझे पुद्गल-पर्याय की समृद्धि के कारण सुन्दर समझे, सौन्दर्यशाली माने, नगरपति समझे, पुत्र-पुत्री और पत्नी के कारण पुण्यशाली करार दे, अलौकिक संपदा का स्वामी माने । लेकिन दुनिया के इस पर-पर्याय-दर्शन से उत्पन्न कोर्ति तुम्हारा एक रोम भी खड़ा नहीं कर सकती, तुम्हे रोमांचित नहीं कर सकती । क्योंकि तुमने मन ही मन दृढ संकल्प कर लिया हैः “शरीर का रूप और लावण्य, धन-धान्यादि संपदा, पुत्र-पौत्रादि परिवार....ये सब पुद्गलजन्य हैं, ना कि मेरा है । मेरे साथ इन का कोई सम्बन्ध नहीं ।"
तब भला, उस पर अभिमान करने का प्रश्न हो कहाँ खड़ा होता है ? जब पर-पर्याय का मूल्यांकन नहीं रहा, तब उस पर अभिमान करने से क्या मतलब ?
० पर-पुद्गल के पर्यायों का मूल्यांकन बन्द करो । ० ज्ञानानन्द को अखंड रखो ।
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