________________
२८०
ज्ञानसार
बाह्यदृष्टिप्रचारेण मुद्रितेषु महात्मन : ।
अन्तरेवावभासन्ते स्फुटा: सर्वाः समृद्धयः ॥१॥१५३।। अर्थ :- जब बाह्यदृष्टि की प्रवृत्ति बंद पडती है तब महात्मा को अंतर में
उपजी सर्वसमद्धि का दर्शन होता है। विवेचन:- अपार...अनंत समृद्धि....!
भला बाहर खोजने की आवश्यकता ही क्या है ? अन्यत्र भटकने से क्या मतलब ? जरा सोचो और एक बात पर गौर करो । तुम अपनी बाह्य दृष्टि बंद कर दो । करली? अब अंतई ष्टि के पट खोलकर अंतरात्मा में झांको ! एकाग्र बनकर देखो। अंधकार है न ? कुछ दिखाई नहीं पड़ता ? लेकिन हताश न हो | भूलकर भी अंतर्दृष्टि बंद न कर देना । उसके प्रकाश को और प्रखर बनाकर देखो । बाहर के प्रकाश से आँखे चौ धिया गई हैं, अत: कुछ देर और घना अंधेरा दिखायी देगा । और तब शनैः शनैः वहाँ स्थित अखण्ड भंडार दृष्टिगोचर होने लगेगा....!
कुछ दिखा ? नहीं ?
तब तुम्हारी समस्त इन्द्रियों की शक्ति को केन्द्रित कर, अन्तरात्मा में रही समद्धि के भंडार को देखने के काम में लगा दो । विश्वास रखो, वहाँ विश्व का श्रेष्ठ और अक्षय भंडार दबा पड़ा है....और तुम उस भंडार के बिलकुल करीब हो....धैर्य रखकर उसे देखने का प्रयत्न करो। उस में क्या है और क्या नहीं, इसे जानने के लिए इतने आकुल-व्याकुल न बनो। तुम स्वयं ही भंडार में क्या है उसे ध्यान पूर्वक देख लेना । फिर भी कह देता हूं कि भंडार की समृद्धि से तुम देव-देवेन्द्रों के साम्राज्य खरीद सकते हो....। देवलोक और मृत्युलोक की समस्त ऋद्धि-सिद्धियाँ मोल ले सकते हो। साथ ही, जानकारी के लिए उक्त समृद्धि की एक विशेष खासियत बता दूं। इसे प्राप्त करने के बाद वह कदापि कम नहीं होगी...! ___ क्या अब भी दृष्टिगोचर नहीं हुई वह समृद्धि ? बाह्यदृष्टि तो बंद कर रखी है न ? उस पर 'सील' मार दो । वह तनिक भी खुली न रहने पाएँ, वरना भंडार नजर नहीं आएगा। बाह्यदृष्टि के पापवश ही कई बार जीव इसके (समृद्धि का भंडार) बिलकुल करीब पाकर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org