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ज्ञानसार
लेकिन धरती पर ऐसे कई लोग हैं, जिनमें इन गुणों का अभाव होता है; सत्कार्य करने की शक्ति नहीं होती; वे भी अपनी प्रशंसा करते नहीं अघाते । अरे, तुम्हें भला किस बात की प्रशंसा करनी है ? गांठ में कुछ नहीं, और चाहिए सब कुछ ! गुणों का पता नहीं, फिर भो प्रशंसा चाहिए ? जो समय तुम आत्म-प्रशंसा में बरबाद करते हो, यदि उतना ही समय गुण-संचय करने में लगाओ तो? परंतु यह संभव नहीं । क्योंकि गुणप्राप्ति की साधना कठिन और दुष्कर है, जब कि बिना गुणों के ही आदर सत्कार और प्रशंसा पाने की साधना बावरे मन को, मूढ़ जीव को सरल और सुगम लगती है !
यह न भूलो कि स्वप्रशंसा के साथ परनिन्दा का नाता चोली-दामन जैसा है । इसीलिये ऐसे कई लोग परनिंदा के माध्यम से स्व-प्रशंसा करना पसंद करते हैं, जिन में आत्मगुण का पूर्णतया अभाव है, साथ ही जो स्वप्रशंसा के भूखे होते हैं । 'अन्य को तुच्छता साबित करने से खुद की उच्चता अपने आप सिद्ध हो जाती है ।' इस संसार में ऐसे जीवों की भी कमी नहीं है ।
आत्मोत्कर्षाच्च बध्यते कर्म नियैर्गोत्रं ।
प्रतिभवमनेकभवकोटिदुर्मोचम् ॥ भगवान उमास्वातिजी फरमाते हैं 'आत्मप्रशंसा के कारण ऐसा नीचगोत्र कर्म का बन्धन होता है कि जो करोड़ों भवों में भी छूट नहीं सकता ।"
साथ ही, यह भी शाश्वत सत्य है कि यदि हम सही अर्थ में धर्माराधक हैं, तो हमे अपने मुंह अपनी ही प्रशंसा करना कतइ शोभा नहीं देता।
श्रेयोद्रमस्य मूलानि, स्वोत्कर्षाम्भ:प्रवाहतः ।
पुण्यानि प्रकटीकुर्वन्, फलं कि समवाप्स्यसि ? ॥२॥१२८।। अर्थ :- कल्याणरुपी वृक्ष के पुण्यरुपी मूल को अपने उत्कर्षवाद रुपी जल के प्रवाह से प्रकट करता हुआ तू कौन सा फल पायेगा ? विवेचन :- कल्याण वृक्ष है ।।
उसका मूल पुण्य है, जड़ है ।
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