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अनात्मशंसा
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की देर है कि डुब गये समझो । जबकि अन्य जीव के गुरणों की प्रशंसा की, तो पार लगते देर नहीं । जब-जब तुम्हारे मन में गुरणनुवाद करने को इच्छा जगे, तब-तब दूसरों के गुणों की प्रशंसा करनी चाहिये और स्व-प्रशंसा की बुरी लत से कोसों दूर रहना चाहिये। हालांकि स्व-प्रशंसा की बुराई मनुष्य में आज से नहीं, बल्कि अनादिकाल से चली आ रही है और जोव मात्र उसका भोग बनता रहा है । जो इससे मुक्त हो गया, निःसंदेह वह महान् बन गया ।
स्वप्रशंसा करने से
* गुणवृद्धि का कार्य बोच में ही स्थगित हो जाता है । * स्व दोषों के प्रति उपेक्षाभाव पैदा होता है ।
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दूसरों के गुण देखने की वृत्ति नहीं रहती ।
दूसरों के गुण सुनकर द्वेष पैदा होता है ।
घोर कर्म-बन्धन के शिकार बनते हैं ।
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दूसरों की नजर में अपने आप को गुणवान, बुद्धिशाली, सर्वोत्तम, सज्जन दिखाई देने की इच्छा, जीव को 'स्व-प्रशंसा' करने के लिए प्रेरित करती है । ऐसी इच्छा सर्वजन साधारण है । इससे दूर रहे विना जीव पाप के अभेद्य परकोटे को भेद नहीं सकता । लेकिन इसके मूल में जो भावना काम कर रही है, वह तो सौ फीसदी गलत और अनिच्छनीय है । मैं अपनी प्रशंसा करुगा तब दूसरे मुझे सज्जन, गुणवान समझेंगे । ' क्या यह रीत अच्छी है ? सच तो यह है कि इस तरह स्व-प्रशंसा से सर्वत्र अपना विज्ञापन करना कोई अच्छी बात नहीं है, ना ही प्रभावशाली भी । अलबत्ता, लोकतंत्र के युग में चुनाव में खड़े प्रत्याशी / उम्मीदवार को जो भरकर अपनी प्रशंसा का राग अलापना पड़ता है । विद्यमान परिस्थिति में धर्मक्षेत्र, सामाजिक क्षेत्र, शैक्षणिक क्षेत्र और राजनैतिक क्षेत्र में सत्ता और स्वामित्व प्राप्त करने के लिए स्व-प्रशंसा एक रामबाण उपाय माना गया है ।
हलांकि सांसारिक क्षेत्र में 'स्व-प्रशंसा', भले ही आवश्यक मानी गयी हो, लेकिन धर्म-क्षेत्र में यह सबसे बड़ा अवरोध है । यदि हम मोक्षमार्ग के पथिक हैं अथवा उस मार्ग पर चलने के अभिलाषी हैं, तो 'स्व-प्रशंसा का परित्याग करने की हमें प्रतिज्ञा करनी चाहिए। संभव है कि स्व
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