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निर्भयता
२४१ मनन करता है, वह सब रागदृष्टि से या द्वेषदृष्टि से करता है। फलतः कर्म-बंधनों के मजबूत जाल में खुद होकर फंस जाता है। जबकि ज्ञानदृष्टि में राग और द्वेष का सर्वथा अभाव होता है। ज्ञानष्टि यानी मध्यस्थ दृष्टि ! ज्ञानदृष्टि यानी यथार्थ दृष्टि !
अनादिकालीन अज्ञानपूर्ण कल्पना, मलिन पद्धति और मिथ्या वासना का अवलम्बन कर मष्टि को निरखने और परखने में भय रहता ही है ! फलत: निर्भयता नहीं मिलती है । एक उदाहरण से समझे इस बात को। शरीर रोगग्रस्त हो गया, अज्ञानी मनुष्य इससे भयभीत हो उठेगा । मलिन विचारवाला रोगको मिटाने के लिए गलत उपायों का अवलम्बन करेगा । मिथ्यावासना वाला शरीर में रहे रोग की चिंता में अपनी शांति खो बैठेगा ! और तब भय-सर्प उसके आनन्द -वृक्षों से लिपट जाएंगे । मन-वन में भय-सों की भरमार हो जाएगी !
लेकिन ज्ञानदृष्टि-मयरी की सुरीली कक सुनायी पडते ही भयसर्पो को छठी का दूध याद आ जाएगा और जहाँ राह देखेंगे वहाँ भागते देर नहीं लगेगी ! रोगग्रस्त शरीर की नश्वरता, उसमें रही रोग-प्रच रता और परिवर्तनशीलता का वास्तविक ज्ञान, ज्ञानदृष्टि हो कराती है । साथ ही, प्रात्मा और शरीर का भेद भी समझाती है । जबकि आत्मा को शाश्वतता, उसकी संपूर्ण निरोगिता और शुद्ध स्वरूप की ओर हमारा ध्यान भी केन्द्रित करती है । 'रोग का कारण पाप-कर्म हैं,' का निर्देश कर, पाप-कर्मों को नष्ट करने हेतु पुरुषार्थ कराती है । सनत्कुमार चक्रवर्ती का शरीर एक साथ सोलह रोगों (मतान्तर से सात महारोग) का शिकार बन गया ! लेकिन उनका मन-उपवन नित्यप्रति ज्ञान-दृष्टि रुपी मयूरी की मीठी कूक से गूंजारित था ! अत: उसने समस्त रोगों के मूल कर्म-बंधनों को काटने का भगीरथ पुरुषार्थ किया । सात सौ वर्ष तक कर्मों के साथ भिडते रहे, उनका सफल सामना करते रहे । उस का कारण था ज्ञानष्टि से उन्हें मिली निर्भयता और अभय-दृष्टि ! वे अपने उद्देश्य में सफल हुए। हमारे प्रयत्न ऐसे हों कि सदा-सर्वदा हमारे मन-वन में ज्ञान-दृष्टि रुपी मयूरी की सुरीली ध्वनि गूंजती रहे ।
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