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विद्या
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स्वरूप में देखने के लिए यथार्थदर्शी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इसके बिना आत्मा की पूर्णता की ओर प्रयाण असंभव है । साथ ही पूर्णानन्द की अनुभूति भी अशक्य है । इसको जानने परखने के यथार्थ दृष्टिकोण ये हैं :
- लक्ष्मी समुद्र-तरंग जैसी चपल है । - जीवन वायु के झोंके की तरह अस्थिर है ! .
- शरीर बादल की भाँति क्षणभंगुर है । पूर्णिमा की सूहानी रात्रि में किसी समुद्र के शांत किनारे आसन जमाकर सागर की केलि-क्रीड़ा करती उत्ताल तरंगों में लक्ष्मी की चपलता के दर्शन कर उसकी लालसा को सदा के लिए तिलांजलि दे देना ! किसी पर्वतमाला की ऊंची चोटी पर चढकर दृष्टि अनंत आकाश की ओर स्थिरकर, सनसनाते वायु के झोंकों में जीवन की अस्थिरता का करूण संगीत श्रवण करना.... और तब जीवन की चाहना से निवृत्त होने का दृढ़ संकल्प कर लेना । वर्षाऋतु के मनोहर मौसम में वन-निकुंज में अड्डा जमा कर आकाश में प्रांखमिचौली खेलते बादलों में काया की क्षणभंगुरता की गंभीर ध्वनि सुन लेना । और काया की स्पृहा को तजने का मन ही मन निर्णय कर लेना ! परिणाम यह होगा कि अविद्या का अनादि आवरण विदीर्ण हो जायेगा और 'विद्या' को देदीप्यमान सौन्दर्य सोलह कलाओं से विकसित हो जायेगा। तब तुम इस दुष्ट 'त्रिकोण' से मुक्त हो जाओगे ! परिणाम यह होगा कि तुम सहज/स्वाधीन ज्ञानादि लक्ष्मी, आत्मा का स्वतंत्र अनंत जीवन
और अक्षय आत्मद्रव्य की अगम/अगोचर सृष्टि में पहुँच जाओगे । जहाँ पूर्णानन्द और सच्चिदानन्द की सुखद अनुभूति होती है ।
लक्ष्मी, जीवन और शरीर-विषयक यह नूतन विचार-प्रणालि कैसी पालादक, अनुपम और अन्तःस्पर्शी है ! कैसा मदू आत्मसंवेदन और रोम-रोम को विकस्वर करने वाला मोहक स्पंदन पैदा होता है ! जीर्ण-शीर्ण प्राचीन-अनादिकालीन विचारधारा की विक्षुब्धता विवशता और विबेक-विकलता का तनिक मात्र स्पर्श नहीं ! कैसी सुखद परमानन्दमय अवस्था.... !
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