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अर्थ :
शुचीन्यप्यशुचीकर्तुं समर्थोऽशुचीसंभवे ।
देहे जलादिना शौचभ्रमो मूढस्य दारुणः ||४॥१०८॥
पवित्र पदार्थ को भी अपवित्र करने में समर्थ और अपवित्र पदार्थ से उत्पन्न हुए इस शरीर को पानी वगैरह से पवित्र करने की कल्पना दारुण भ्रम है ।
विवेचन : शरीरशुद्धि की तरफ झुके चाहिए कि शरीर की उत्पत्ति कैसे है और उसका मूल स्वभाव कैसा है ।
हुए मनुष्य को तनिक तो सोचना हुई है, वह कहां से उत्पन्न हुआ
सुक्कं पिउरणो माउए सोणियं तदुभयं पि संस । तप्पढ़माए जीवो आहार तत्थ उप्पन्नो ॥
ज्ञानसार
-भवभावना
पिता का शुक्र और माता का रूधिर, इन दोनों के संसर्ग से शरीर की उत्पत्ति होती है । जीवात्मा वहाँ प्रवेश कर प्रथम बार शुक्र- रुधिर के पुद्गलों का आहार ग्रहण कर, शरीर का निर्माण करता है । यह हुई उसकी उत्पत्ति की बात ।
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भला, उस शरीर का स्वभाव कैसा है ? पवित्र को अपवित्र करने का, शुद्ध को अशुद्ध बनाने का, सुगंध को दुर्गंध में बदलने का और सुडौल को बेढ़ेगा बनाने का । तुम लाख कपूर, कस्तुरी और चंदन का विलेपन करो, शरीर उस विलेपन को अल्पावधि में ही अशुद्ध, अपवित्र और दुर्गंधमय बना देगा | गर्भ / शीतल फव्वारे के नीचे बैठकर सुगंधित साबुन मल-मलकर लाख स्नान कर लो, ऊँचे इत्र का उपयोग कर भले महका दो,.... लेकिन दो तीन घंटे बीते न बीते, शरीर अपने मूल स्वभाव पर गये बिना नहीं रहेगा । पसीने से तरबतर, मल से गंदा और नानाविध रोग-व्याधि से ग्रस्त बन जाते देर नहीं लगेगी । इस तरह शरीर को जल और मिट्टी से पवित्र बनाने की जीव की कल्पना न जाने कैसी भ्रामक और असंगत है ? शारीरिक पवित्रता को ही अपनी पवित्रता मानने की मान्यता कैसी हानिकारक है ? यह सोचना चाहिए ।
अतः शरीर को साध्य मानकर उसके साथ जो व्यवहार किया जाता है उस में आमूल परिवर्तन होना जरुरी है । लेकिन प्रवृत्ति के
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