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१६. मध्यस्थता. तुम किसी एक विचारधारा के प्राग्रही मत बनो । बल्कि मध्यस्थ बनो। कुतर्क और कुविचारों का सर्वथा त्याग करो । यह तभी संभव है, जब तुम्हारी राग-द्वेषयुक्त वृत्ति शिथिल हो गयी हो, और तुम अंतरात्म-भाव में आकंठ डूब गये हो, पूरी तरह निमग्न हो गये हो! 'विभिन्ना अपि पन्थानः समुद्रं सरितामिव
ग्रन्थकार महर्षि ने कैसी उत्कृष्ट बात कही है ! नदियाँ भले ही विविध मार्गों से, प्रदेशों से प्रवाहित होती हों, लेकिन अंत में समुद्र में ही जाकर मिलती हैं। ठीक उसी तरह, संसार में रहे मध्यस्थ पुरूषों के मार्ग भले ही अलग-अलग हों, लेकिन आखिरकार वह सब अक्षय परमात्म-स्वरूप में विलीन हो जाते हैं।
मध्यस्थ-भाव को पाने के लिए इन पाठ श्लोकों का बार-बार मंथन करना आवश्यक है।
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