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ज्ञानसार
निष्ठा और सर्वत्र औचित्य का पालन, ये हैं आत्मभाव में तल्लीन होने के विविध उपाय । इन का अवलम्बन लेकर मन को समाधिस्थ किया जा सकता है ! अनवरत अभ्यास के कारण समाधि में तन्मयता सिद्ध हो सकती है। फिर भी कभी-कभार मन पर-द्रव्य के प्रति आकर्षित होने की संभावना है । ऐसे प्रसंग पर पर-पदार्थों को देखने की विशिष्ट दृष्टि का आधार लेना चाहिए । जीवों के प्रति मैत्री, प्रमोद, करुणा, और मध्यस्थ दृष्टि रखना परमावश्यक है। जब कि जड़-पदार्थ के सम्बंध में अनित्यादि भावों का प्राश्रय लेना चाहिए। इस तरह मध्यस्थता को बरकरार रखी जाए, तभी मन प्रशम का सुखानुभव कर सकता है ।
पराये गुण-दोष देखने की बेचैनी का अनुभव किए बिना ऐसी गंदी आदत से मुक्त होना सरल नहीं है । पराये गुण-दोष देखने की गंदी आदत पड़ गयी है, जिससे दृष्टि मध्यस्थ हो ही नहीं सकती। फल-स्वरूप निष्कारण ही मन किसी का पक्षपाती और किसी का कट्टर दुश्मन बनकर रह जाता है । किसी का अनुरागी तो किसी का द्वेषी ! इससे मन को दु ख होता है सो बात नहीं, बल्कि इस में भी उसे एक प्रकार का अनोखा आनंद मिलता है ! वह अपना कर्तव्य समझ बैठता है ! और खासियत यह है कि इस के बावजूद भी वह अपने आप को मुनिधर्म का अनन्य आराधक समझता है !
। प्रायः प्रत्येक जीव में चेतन-द्रव्य के दोष और जड़-द्रव्य के गुण देखने की आदत होती है । वह चेतन (जीव) के दोष देख उसके प्रति द्वेष रखता है और जड़ के गुण देख उसका अनुराग करता है। जड़ माध्यम से जीव के प्रति भी वह राग-द्वेष से ग्रस्त बनता है तदुपरांत भी यह नहीं समझ पाता कि वह कोई गंभीर भूल कर रहा है। वह तो सिर्फ गुण-द्वेष देखने के हठाग्रह को मन में संजोये रखता है और विविध युक्तियों से उसे पुष्ट करता रहता है ।
इस तरह असत् तत्त्वों का आग्रह भी दूसरों के गुणदोष देखने के लिए निरंतर प्रेरित करता है । अपनी स्थल बुद्धि को समझ में न आने के कारण वह मोक्षमार्ग को भी गुण-दोष की दृष्टि से देखता है ! फलतः राग-द्वेष से ग्रसित हो जाता है । इन सभी विषमताओं से मुक्त होने का राजमार्ग है : 'सदा सर्वदा आत्मभाव में तन्मय होना और
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