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राग-द्वेष क्षीण होते जाएंगे । होना अशक्य है | वास्तव में एवं अधे दर्शन से होती है ।
ज्ञानसार
राग-द्वेष की तीव्रता में यथार्थ-दर्शन राग-द्वेष की उत्पत्ति विश्व के अस्पष्ट
यहां पर संसारी जीवों के प्रति देखने का एक ऐसा यथार्थ दृष्टिकोण अपनाया गया है कि राग-द्व ेष नष्ट हुए विना कोई चारा नहीं । जिस जीव के प्रति जिन-जिन कार्य, संयोग और परिस्थिति के संदर्भ में राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं, वह कार्य, संयोग और परिस्थिति वगैरह, उस जीव के पूर्वकृत कर्मों के कारण होते हैं । कर्मों को उपार्जित करनेवाला वह जीव है और उनको रोते-हँसते, चीखते भोगनेवाला भी वह खुद है ।
जब हम अन्य जीवों की ऐसी किसी प्रवृत्ति के साथ अपने श्रापको जोड़ देते हैं, तब राग-द्वेष का जन्म होता है । अन्य जीवों के समग्र जीवन और व्यक्तित्व के पीछे उसके कर्म ही कारण हैं । उपादान कारण उसकी आत्मा है और निमित्त कारण उसके अपने ही कर्म हैं । यदी यह वास्तविकता हमारे गले उतर जाए तब राग-द्वेष पैदा होने का कोइ प्रयोजन ही नहीं रहता ।
किसी एक नय के आग्रही मनुष्य के प्रति भी हमें यही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए | 'मिथ्यात्व - मोहनीय' कर्म का फल यह बिचारा भोग रहा है । कर्मबंधन खुद करता है और खुद ही उसे भोगता है । अतः हमें भला क्यों कर राग-द्वेष करना चाहिए ?
अधमाधम व्यक्ति के प्रति भी सदा यही दृष्टि अपनानी चाहिए कि 'बेचारा न जाने किन जन्मों का पाप भोग रहा है ? यह संसार ही ऐसा है । पूज्यपाद उपाध्यायजी महाराज ने 'अध्यात्मसार' में कहा है ।
'निन्द्यो न कोऽपि लोके पापिष्ठेष्वपि भवस्थितिश्चिन्त्या ।'
"विश्व में किसी की निंदा न करो । पापी व्यक्ति भी निंदनीय नहीं है । भवस्थिति का हमेशा विचार करो !”
पूज्यपाद श्री का 'भवस्थिति' - चितन का आदेश सचमुच सुन्दर है । भवस्थिति का चिंतन अर्थात् चतुर्गतियुक्त संसार में निरंतर चल रहे
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