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मध्यस्थता
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परायी पंचायत को तिलांजलि देना ।' 'स्व' के प्रति एकाग्रचित्त होना। जब तक 'पर' का विचार दिलो-दिमाग में राग-द्वेष की होली सुलगाता हो तबतक 'स्व' में लीन होना सभी दृष्टि से श्रेयस्कर है ।
'जब तक 'पर' का विचार मझे रागी-द्वेषी और पक्षपाती बनाता है, तब तक में अपनी आत्म-साधना....आत्मभाव में तल्लीन रहूँगा।' ऐसा मन ही मन दृढ़ संकल्प कर, जीवन जीने का प्रयास किया जाए तो नि:संदेह मध्यस्थदृष्टि के पट खल जाएंगे और समभाव का मनभावन मवेदन पा सकेंगे।
विभिन्ना अपि पन्थान: समुद्रं सरितामिव !
मध्यस्थानां परं ब्रह्म प्राप्नुवन्त्येकमक्षयम् ॥६॥१२६॥ अर्थ :- मध्यस्थो (तटम्थ) के विभिन्न भी मार्ग, एक ही अक्षय, उत्कृष्ट
परमात्म-स्वरूप में मिलते हैं ! जिस तरह नदियों के अलग-अलग प्रवाह
समुद्र में मिलते हैं ! विवेचन : नदियों के प्रवाह भिन्न-भिन्न होते हैं । नदियाँ अलग-अलग मार्गों में प्रवाहित होती हैं, लेकिन आखिरकार उसके विभिन्न प्रवाह एक ही समुद्र में प्रा मिलते हैं, वह समुद्र से एकाकार हो जाते हैं ।
यह एक ऐसा उदाहरण है कि यदि इसके रहस्य को समझा जाए, गहरायी से इस पर विचार किया जाए तो सभी जीवों के प्रति अटूट मित्रता एवं सद्भाव प्रस्थापित होते देर नहीं लगती ।
कोइ नदी उत्तर में बहती है, तो कोई नदी दक्षिणांचल को अपने प्रवाह से फलद्रप बनाती है, तो कोई पूर्वाचल को सिंचते हुए उपजाऊ भूप्रदेश के रूप में परिवर्तित करती है। तो किसी नदी का प्रवाह पश्चिम किनारे को हरियाली और घनी वनराजि से सुशोभित करता, समुद्र की ओर बढ़ता रहता है । इस तरह भिन्न-भिन्न मार्ग और विविध प्रदेशों में नदियाँ प्रवाहित होते हए भी उनकी गति समुद्र की ओर होती है। संभव है, किसी नदी का पट विशाल होता है तो किसी का सोमित, किसो को गहरायो विशेष होती है, तो किसी की सामान्य ! किसी का प्रवाह तीव्र होता है तो किसीका मंद ! लेकिन उन सब की मंजिल
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