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मध्यस्थता
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परित्याग यही सब से बड़ा उपालम्भ ! उलाहना है । इन सब बातों का तात्पर्य यह है कि राग-द्वेष से परे रहने के लिए कुतर्क का त्याग करना चाहिए !
मनोवत्सो युक्तिगवों मध्यस्थस्यानुधावति !
तामाकर्षति पुच्छेन तुच्छाग्रहमन:कपिः ।।२। १२२।। अर्थ : मध्यस्य पुरुष का मन रुपी बछड़ा युक्तिरुपी गाय के पीछे दौडता है,
जबकि दीन-हीन वृति वाले पुरुष का मनरूपी बंदर युक्ति रुपी गाय
की पूछ पकड कर पीछे खिचता है ! विवेचन :मध्यस्थ पुरुष का मन बछड़ा है, और युक्ति गाय है ! बछड़ा गाय के पीछे दौडता है ।
मिथ्याग्रही पुरुष का मन बंदर जैसा है । वह हमेशा युक्तिरूपी गाय की पूंछ पकड कर उसे पीछे खिंचता है ।
___ मध्यस्थ-वृत्तिवाला व्यक्ति नित्यप्रति युक्ति की ओर आकर्षित होता है, जब कि दुराग्रही उसे (युक्ति को) अपनी ओर खिंचता है। अपनी मान्यता, विचार-धारा की ओर युक्ति को जोड़-तोड़ कर मोड़ देता है । श्री हारिभद्री-अष्टक में कहा गया है :
'आग्रही बत निनीषति युक्तिं तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा ।
पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम्।। "आग्रही पुरुष की जैसी अपनी समझ, बुद्धि (मति) होती है, वह युक्ति को उसी और मोड़ लेता है । यह उसका लक्षण है, जब कि पक्षपातरहित व्यक्ति जहाँ युक्ति होगी, उस ओर बुद्धि को मोड़ता है ! क्यों कि पक्ष, गुट, संप्रदाय, गच्छ अथवा पंथविशेष का आग्रह-पक्षपात दिमाग में किसी युक्ति को प्रवेश ही नहीं करने देता ! युक्तिहीन, स्वपक्ष की बातों का दुराग्रह मनुष्य को लाख चाहने पर भी मध्यस्थ नहीं होने देता । अरे वह तो यहाँ तक सोचता रहता है कि 'यदि मैं अन्य पंथ, संप्रदाय, या गच्छ की सयुक्तिक बातें सुनूंगा और मुझे अँच गयी तो मेरा समकित चला जाएगा, फलत: में समकितविहीन बन जाऊँगा।' . किसी भी युक्ति की यथार्थता का परिक्षण करने की समझ हम में अवश्य होनी चाहिए । तर्क दो प्रकार के होते हैंः सुतर्क और कुतर्क !
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