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ज्ञानसार
सुतर्क किसे कहा जाए और कुतर्क किसे, यह समझाने की सूक्ष्म बुद्धि हम मे होना जरूरी है ।
इस भूतल पर जो जो मत, पंथ संप्रदाय अथवा गच्छों का प्रादुर्भाव हुआ है, वह किसी न किसी तर्क के सहारे हआ है । अपने किसी विचार या मान्यता के पोषक ऐसे तर्क और उदाहरण मिल जाने पर एकाध पंथ अथवा संप्रदाय का जन्म होता है । और उस युक्ति और उदाहरणों की यथार्थता-अयथार्थता का सही मूल्यांकन करने में असमर्थ जीव उस पंथ या मत में शामिल हो जाता है। लेकिन सिर्फ कुतर्क के आधार पर स्थित कपोल कल्पित मत-मतांतर, पंथ और संप्रदाय वर्षाऋतु में जन्मे कुकुरमुत्ते की तरह अल्प जीवी सिद्ध होते हैं ! अथवा अज्ञान और मतिमंद जीवों के क्षेत्र में वह पंथ या संप्रदाय फल-फूल कर वृक्ष का रूप धारण कर लेता है !
__ सीधा-सादा जीव, कुतर्क को ही मुतर्क समझ कर नादानी में उसकी ओर आकर्षित हो जाता है । जबकि कभी-कभी सुतर्क को कुतर्क समझ, उससे कोसों दूर निकल जाता है । सुतर्क को सुतर्क और कुतर्क को कुतर्क समझने की क्षमता रखने वाला मनुष्य ही मध्यस्थ-दृष्टि प्राप्त कर सकता है ।
यथार्थ वस्तु-स्वरूप की जानकारी हासिल करने हेतु युक्ति का प्राधार लेना अत्यंत आवश्यक है । ठीक उसी तरह युक्ति को यथार्थ रूप में समझने के लिए उसकी परिभाषा को समझना जरूरी है। वर्ना मिथ्या भ्रम की भुल भुलैया में भटकते देर नहीं लगती। जानते हो, शिवभति की कैसी दुर्दशा हुई ? रथवीरपुर नामक नगर में स्थित आचार्यश्री आर्यकृष्ण का परम-भक्त, और अनन्य शिष्य शिवभूति, भतिभ्रष्ट हो गया । आचार्यश्री. द्वारा विवेचित 'जिनकल्प' के शास्त्रीय विवेचन को वह अपनी कल्पना की उड़ान पर उड़ा ले गया । प्राचार्य श्री ने अपने शिष्य को भ्रम के चक्रव्यूह में फंसने से बचाने हेतु 'जिनकल्प' का यथार्थ विवेचन करने के लाख प्रयत्न किये ! अकाट्य तर्क देकर उसे समझाने का प्रयत्न किया । लेकिन सब व्यर्थ गया. ! शिवभूति के मन:कपि ने युक्ति रूप गाय की पूंछ पकड, हरबार अपनी और खिंचने का प्रयत्न किया !.यहाँ तक कि स्वयं वस्त्र-त्याग कर दिया..
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