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ज्ञानसार. आत्मा के पर्यायों की सृष्टि में, उनमें परस्पर रहे सम्बन्ध और रिश्तों को भली-भांति समझना चाहिये ! तभी भेद-ज्ञान अधिकाधिक दृढ होता है।
संयमास्त्रं विवेकेन शाणोनोत्तेजितं मनः ।
धतिधारोल्बणं कर्मशत्रुच्छेदक्षमं भवेत् ॥८॥१२०॥ अर्थ :- विवेकरुपी सान पर अत्यंत तीक्षण किया हुआ और संतोष रूपी धार
से उग्र, मुनि का संयमरूपी शस्य, कर्मरूपी शत्रु का नाश करने में समर्थ
होता है । विवेचन : कर्म-शत्रु के उच्छेदन हेतु शस्त्र चाहिए ना ? वह शस्त्र तीक्षण/नुकीला होना चाहिए । शस्त्र की धार को तीक्ष्ण करने के लिए सान भी जरुरी है । यहां शस्त्र और सान, दोनों बताए गए हैं । ..
संयम के शस्त्र की संतोषरुपी धार को विवेकरुपी सान पर तीक्ष्ण करो । तीक्ष्ण धारवाले शस्त्रास्त्रों से सज्ज होकर शत्रु पर टूट पड़ो और उसका उच्छेदन कर विजयश्री हासिल कर लो । कर्म-क्षय करने हेतु यहां तोन बातों का निर्देश किया गया है :
* संयम * संतोष विवेक
यदि संयम के शस्त्र को भेद-ज्ञान से तीक्ष्ण बनाया जाय तो कर्मशत्रु का विनाश करने में वह समर्थ सिद्ध होगा । परम संयमी महात्मा खंधक मुनि के समक्ष जब चमड़ी छिलवाने का प्रसंग पाया, तब मुनिराज ने अपूर्व धैर्य धारण कर संयमशस्त्र की तिधार को विवेक रुपी सान पर चढ़ा दिया । राजसेवक बड़ी करता से मूनि की चमडी छिलने लगे और इधर वे मुनि स्वयं संयम-शस्त्र से कर्म की खाल उतारने में तल्लीन हो गए । अर्थात् शरीर और आत्मा के भेदज्ञान की परिणति ने मरणांत उपसर्ग में भी धृति को बराबर टिकाये रख, सयम-वृत्ति को अभंग रखा । फलत: क्षणार्ध में ही अनंत कर्मों का क्षय हो गया और आत्मा पुद्गल-नियंत्रणों से मुक्त हो गयी ।
शरीर पर की चमड़ी उतरती हो, असह्य वेदना और कष्ट होता हो, खून के फव्वारे फूट रहे हो, फिर भी जरा सी हलचल नहीं, कतई असंयम नहीं, तनिक भी अधृति की भावना नहीं ! यह कैसे
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