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ज्ञानसार
अप्रमत्त भाव को जागृत रखना होता है। यदि वहाँ प्रमाद का अवरोध उपस्थित हो जाए, शुद्ध चैतन्यभाव से तनिक भी विचलित हो जाए, तब पतन हुए बिना नहीं रहेगा।
भेद-ज्ञान की इसी सर्वोत्कृष्ट भूमिका पर विपुल प्रमाण में कर्मक्षय होता है। प्रात्मा स्व-स्वभाव में अपूर्व सचिदानन्द का अनुभव करती है, साथ ही प्रशम-रति में केलि-क्रीड़ा करती है।
मात्मन्येवात्मनः कुर्यात् य: षटकारकसंगतिम् ।
क्वाविवेकज्वरस्यास्य, वैषम्यं जडमज्जनात् ।।७।।११३।। अर्थ : जो प्रात्मा आत्मा में ही छह कारक का सम्बन्ध प्रस्थापित करती __ है, उसे भला जड़-पुदगल में निमग्न होने से उत्पन्न अविवेक रूपी
ज्वर की विषमता कैसे संभव है ? विवेचन : व्याकरण की दृष्टि से कारक के छह प्रकार होते हैं : (१) कर्ता
(२) कर्म (३) करण
(४) संप्रदान (५) अपादान
(६) आधार-अधिकरण जगत में विद्यमान सब सम्बंधों का समावेश प्रायः इन छह कारकों में हो जाता है। उक्त छह कारक का सम्बंध आत्मा के साथ जोड़ देने से एक आत्माद्वैत की दुनिया का सर्जन होता है । जिस में आत्मा कर्ता है और कर्म भी आत्मा ही है। कारण रूप से आत्मा का दर्शन होता है और संप्रदान के रूप में भी प्रास्मा का ही दर्शन होता है ! अपादान में भी प्रात्मा निहित है और अधिकरण में भी प्रात्मा ! इस तरह आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी का प्रतिभास नहीं होता । जहाँ देखो वहाँ आत्मा ! तब कैसी आत्मनन्द से परिपूर्ण अवस्था होती है ? पुद्गलों के साथ रहे संबंधो से अविवेक पैदा होता है, जो आत्मा में एक प्रकार की विषमता का सर्जन करता है । लेकिन 'मलं नास्ति कतः शाखा ?' पुद्गल के साथ रहा संबंध ही तोड़ दिया जाए, तब अविवेक का प्रश्न ही नहीं उठता और विषमता पैदा होने का अवसर ही नहीं आता।
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