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ज्ञानसार
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“जीवात्माओं, यह तुम्हारा वास्तविक जीवन नहीं है । पूर्ण स्वतंत्र, स्वाधीन जीवन जीने का तुम्हारा पुरा अधिकार है । तुम अपने आप में शुद्ध हो, बुद्ध हो, निरंजन-निराकार हो। अक्षय और अव्यय हो, अजरामर हो...। तुम अपने मूल स्वरुप को समझो। कर्माधीनता के कारण उत्पन्न दीनता, हीनता और न्यूनता के बंधन तोड़ दो । तुम्हें पदपद पर जो रोग, शोक, जरा, और मृत्यु का दर्शन होता है, वह तो कर्म द्वारा तुम्हारी दृष्टि में किये गये विकार-अंजन के कारण होता है । तुम्हारी मृत्यु नहीं, तुम्हारा जन्म नहीं, तुम रोग-ग्रस्त नहीं, नाही कोइ दु:ख है। तुम अज्ञानी नहीं, मोहान्ध भी नहीं, साथ ही शरीरधारी नहीं ।" ऐसा आत्मज्ञान प्राप्त होते ही मुक्ति की मंजिल शनैः शनै: निकट पाती जाती है ।
आत्मज्ञानफलं ध्यानमात्मज्ञानं च मुक्तिदम् । आत्मज्ञानाय तन्नित्यं यत्नः कार्यो महात्मना ।।
---अध्यात्मसारे आत्मज्ञान हेतु निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए। सिर्फ प्रात्मा को जान लो। शेष कुछ जानने की आवश्यकता नहीं है। आत्मज्ञान के लिए ही नौ तत्त्वों का ज्ञान हासिल करना जरुरी है । जो प्रात्मा को न जान पाया, वह कुछ भी न जान पाया। कर्मजन्य विकृति को प्रात्मा में आरोपित कर ही अज्ञानी जीव भवसागर में प्रायः भटकते रहते हैं। अत: भेद-ज्ञान, आत्म-ज्ञान प्राप्त करना परमावश्यक है ।
यथा योधैः कृतं युद्ध स्वामिन्येवोपचर्यते ।
शुद्धात्मन्यविवेकेन कमस्कन्धोजित तथा ।।४॥ ११६।। अर्थ: जिस तरह योद्धायों द्वारा खेले गये युद्ध का श्रेय राजा को मिलता
है, टीक उसी तरह अविवेक के कारण कर्मस्कन्ध का पुण्य-पाप रुप
फल, शुद्ध आत्मा में आरोपित है । विवेचन : सैनिक युद्ध करते हैं और सैनिक ही जय-पराजय पाते हैं । लेकिन प्रजा यहो कहती है : "राजा की जय हुई अथवा पराजय हुई" अर्थात सैनिकों द्वारा प्राप्त विजय का श्रेय उनके राजा को मिलता है। उसी तरह सेना का पराजय भी राजा का पराजय कहा जाता है:
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