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चिनेक
- २०७ पुनः पुनः जड़ तत्त्वों से आत्मा की भिन्नता समझाने के लिए बनेकविध दृष्टांतों का आधार लिया जाता है, प्रात्मा के गुण अलग हैं और जड़-पुद्गल के अलग | जड़-पुद्गल मूर्त हैं, रूपी हैं जबकि आत्मा 'पूर्णतया अरुपी/निराकारी है। व्यवहारनय भले ही शरीर के साथ श्रात्मा के एकत्व को मान्य करता हो, लेकिन निश्चयनय को यह मान्य नहीं है। वह शरीर के साथ आत्मा की एकता मान्य नहीं करता ।
तन्निश्चयो न सहते यदमूर्तो न मूर्तताम् । अंशेनाप्यवगाहेत पावकः शीततामिव ॥३५॥ उष्णस्याग्नेर्यथा योगाद् घृतमुष्णमिति भ्रमः । तथा मूर्ताङ्गसंबन्धादात्मा मूर्त इति भ्रमः ॥३६॥ न रुपं न रसो गन्धो न स्पर्शों न चाकृतिः ।
यस्य धमों न शब्दो व। तस्य का नाम मूर्तता ॥३७॥ अमूर्त आत्मा क्या अमुक अंश में भी मूर्तता धारण करता है? क्या अग्नि अंशमात्र भी शीतलता धारण करती है ? आत्मा में मूर्तता की निरी भ्रमरणा है। जिस तरह उष्ण अग्नि के कारण 'घी उष्ण है' का भ्रम होता है, ठीक उसी तरह मूर्त शरीर के संयोग से 'पात्मा मूर्त है' का भ्रम मात्र होता है । जिसका धर्म रूप नहीं, रस नहीं, गंव नहीं, स्पर्श नहीं, प्राकृति नहीं, ना ही शब्द है...'ऐसी आत्मा भला, मूर्त कैसी और किस तरह ? रुप, रस, गंध, स्पर्श, प्राकृति और शब्दये सब जड़ के गुणधर्म हैं, ना कि आत्मा के। तब भला, शरीरादि पुद्गल में आत्मा की एकता कैसे मान ले?
वास्तव में प्रात्मा तो सच्चिदानन्द स्वरुप है। उसे मूर्तता स्पर्श तक नहीं कर सकती।
इन्दियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मन : ।
मनसोऽपि परा बुद्धिो बुद्धः परतस्तु सः । "इन्द्रियों" को 'पर-अन्य' कही जाती हैं, इंद्रियों से मन 'पर' है, मन से बुद्धि "पर" है और बुद्धि से आत्मा 'पर' है। ऐसी अमूर्त मात्मा में मूर्तता आरोपित कर, अज्ञानी मनुष्य भव-भ्रमसा में भटक जाता है।
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