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विद्या
विषयकषायावेशः तत्वाश्रद्धा गुणेषु द्वेषः ।
आत्माज्ज्ञानं च यदा बाह्यात्मा स्यात् तथा व्यक्तः ॥ . इस तरह शरीर में अहत्व की बद्धि रखनेवाला विषय-कषाय के आवेशवश अपनी ही आत्मा को कर्म-बन्धन में आबद्ध करता है । तत्त्व के प्रति श्रद्धा और गुरगों में द्वेषभाव बनाये रखती आत्मा को कर्मलिप्त करता है, जो खुद के दु:ख के लिए ही होता है।
खद कर्म-बन्धन में जकड़ता जाता है। फिर भी उसे होश नहीं रहता कि 'मैं बन्धन में फंस रहा हूँ ।' यही तो आश्चर्यचकित करने वालो बात है। जब तक इसका अहसास न होगा, तब तक कर्म-बंधन असह्य नहीं लगेंगे । जब तक कर्म-बन्धन-प्रेरित त्रास और सीतम का अनुभव न हो, तब तक कर्मबन्धनों को तोड़ने का पुरुषार्थ नहीं होता । पुरुषार्थ में उत्साह, वेग और विजय का लक्षा नहीं होता । मोहमदिरा के जाम पर जाम चढ़ाकर नशे में धुत्त बहिरात्मा के सामने दर्पण धर दिया जाता है : “तू अपने आपको पहचान !"
__ यदि उस दर्पण में ध्यानपूर्वक देखा जाए तो हम खुद को कैसे लगेंगे ? अनंतानंन कर्म-बन्धनों से जकड़े, श्रमित, निस्तेज, पराधीन, परतंत्र और सर्वस्व गँवाकर हारे हुए दर-दर के भिखारी से ।
घर और धन के प्रति ममता की बुद्धि, पराधीनता और परतंत्रता में वद्धि करती है। ज्ञानादि स्व-संपत्ति को देखने नहीं देती और बाह्य भाव के रंगमंच पर नानाविध नात्र नचाती है । 'अहं' और 'मम' के मार्ग पर गतिमान जीव की न जाने कैसी दुर्दशा होती है, इसे जानने के लिए भूतकालीन पुरुषों को ओर दृष्टिपात करना जरूरी है। सुभूम चक्रवती और ब्रह्मदत चनावों के दिल दहलाने वाले वृत्तान्तों को जानना अवश्यक है । भगवसम्राट कोणिक और वर्तमान में जर्मनी के भूतपूर्व तानाशाह हिटलर के करूण अन्त का इतिहास जानना परमावश्यक है ! 'सेंट हेलो' द्वीप पर जोवन-संध्या की अन्तिम किरणों में सांस लेते महाबली नेपोलियन की कहानी का जरा अवगाहन करो।
अहंकार और ममकार के महा भयंकर. पाश की पाशविकता और क्रूरता · को जानकर, उस पाश से मुक्त होने का महान् पुरूषार्थ करना चाहिए ।
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