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विद्या
समता - कुंड की महिमा तुम क्या जानो ? वह कैसा चमत्कारिक और अलौकिक है ! तुम कैसी भी असाध्य व्याधि से ग्रस्त हो, भयंकर रोग से पीडित हो, उसमें स्नान कर लो । क्षरणार्ध में सब व्याधि और रोग दूर हो जायेंगे । तुम्हारा शरीर कंचन सा निरोगी बन जाएगा । जीवन में कैसे भी आंतरिक दोष हों, समता - कुंड में स्नान कर लो ! दोष कहीं नजर नहीं आयेंगे । जानते हो भरत चक्रवर्ती ने अपने जीबन में कौन सा दुष्कर तप किया था ? कौन सा बड़ा त्याग किया था ? किन महाव्रतों का पालन किया था ? कुछ भी नहीं ! फिर भी उन्होंने आत्मा के अनंत दोष क्षणार्ध में दूर कर दिये । जड - मूल से उखाड़ दिये । किस तरह ? सिर्फ समता - कुंड में स्नान करके ! पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने स्वरचित ग्रन्थ 'अध्यात्मसार' में इसका रहस्य अनूठी शैली में आलेखित किया है ।
श्राश्रित्य समतामेकां निवृत्ता भरतादयः । न हि कष्टमनुष्ठानमभूत्तेषां तु किंचन ।।
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बाह्य शरीर को पानी और मिट्टी से पवित्र करने का पागलपन दूर कर और समता - जल से ग्रात्मा को पवित्र बनाने का मार्गदर्शन कर, पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने न जाने कैसा महान् उपकार किया है ! समता द्वारा समकित की प्राप्ति होते ही समझ लेना चाहिए कि 'मैं पवित्र हो गया.... मैं पवित्र हूं ।' यदि यह भावना अहर्निश बनी रहे तो फिर. शरीरादि को पवित्र करने का विचार ही नहीं आएगा । जब हमारे मन में : 'मैं अपवित्र ह... गंदा !' भावना काम करती है, तब पवित्र बनने की प्रवृत्ति पैदा होती
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समता को स्थिर बनाये रखने के लिए भूल कर भी कभी जीवों में कर्म - निर्मित वैविध्य का दर्शन नहीं करना चाहिए। जैसे-जैसे विशुद्ध आत्म-दर्शन दृढ़ होता जाता है, तैसे-तैसे समता की नींव दृढ़ और स्थिर बनती जाती है । समता का अनुपम सुख और आनन्द का अनुभव वही ले सकता है, जिसने उसे अपने जीवन में आत्मसात् की हो । शरीरादि पुद्गलों में अविरत आसक्त जीवात्मा भला, उसका वचनातीत सुख का क्या अनुभव कर सकेगा ? जिसके सिर पर शरीर को पवित्र बनाने की धुन सवार हो, वह भूलकर भी कभी समता के कुंड में निमज्जित हो कर अनुपम पवित्रता प्राप्त नहीं कर सकता ।
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