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ज्ञानसार
और कल्पनातीत सफलता से अभिभूत हो, उनका हृदय पूर्णानन्द से भर जाता है । वे पूर्णानन्दी बन जाते हैं ।
* अविद्या का नाश ! * तत्त्वदृष्टि का अंजन ! * अंतरात्मा में परमात्म-दर्शन !
परमात्म-दर्शन की पार्श्वभमि में दो प्रमुख बातें रही हुई हैं, जिनका प्रस्तुत अष्टक में समग्र-दृष्टि से विवेचन किया गया है । वह है, अविद्या का नाश और तत्वबुद्धि का अंजन !
अब हम गूगस्थानक के माध्यम से प्रस्तुत विकासक्रम का विचार कर ! अविद्या का अंधकार प्रथम गुणस्थानक पर होता है ! अंधकार से प्रावृत्त जीवात्मा 'वाह्यात्मा' कहलाती है । चतुर्थ गुरणस्थानक पर अविद्या के अंधकार का नाश होता है और 'तत्त्वबुद्धि' (विद्या) का उदय ! बारहवें गुरणस्थानक तक तत्त्वबुद्धि विकसित होती रहती है ! ऐसे तत्वबुद्धि-धारक जीवात्मा को 'अंतरात्मा' कही गयी है । जब कि यही 'अंतरात्मा' तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानक पर पहुंचकर परमात्मा का रुप धारण कर लेती है, परमात्मा बन जाती है । तब यह प्रश्न उपस्थित होगा कि भला, हम कैसे जान सकते हैं कि हम बाह्यात्मा हैं ? अंतरात्मा हैं ? अथवा परमात्मा है ? इसका उत्तर है: हम स्पष्ट रूप में जान सकते हैं कि हम क्या हैं । उसे जानने की पद्धति निम्नानुसार है :
यदि हम में विषय और कषायों की प्रचरता है, तत्त्वों के प्रति अश्रद्धा है, गुणों के प्रति द्वेष है और प्रात्मज्ञान नहीं है, तो समझ लेना चाहिए कि हम 'बाह्यात्मा' हैं ।
卐 यदि हम में तत्त्वश्रद्धा जगी है, अणुव्रत-महावतों से जीवन संयमित है, कम-ज्यादा प्रमाण में मोह पर विजयश्री प्राप्त की है, विजयश्री पाने का पुरुषार्थ चालू है, तब समझ लेना चाहिए कि हम अंतरात्मा हैं और चतुर्थ गणस्थानक से लेकर बारहवें गणस्थानक तक कहीं न कहीं अवश्य हैं।
卐केवलज्ञान प्राप्त हो गया हो, योगनिरोध कर दिया हो, समग्र कर्मों का क्षय हो गया हो, सिद्ध शिला पर आरुढ़ हो गये हो, तब समझ * देखिए परिशिष्ट में : गुणस्थानक का स्वरूप
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