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विद्या
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जो कुछ हमें दिखता है वह सब पुद्गलमय है । इन पांच द्रव्यों में सिर्फ पुद्गल ही रुपी है। हानि, वृद्धि और निरंतर परिवर्तन-यही पुद्गल का स्वरुप है । 'जीवास्तिकाय' का स्वरुप है चैतन्य । ज्ञानादि स्वपर्याय में रमणता उसका कार्य है । पुदगल द्रव्य में आत्मगुरगों का प्रवेश नहीं होता है । आत्मा में पुद्गल-गुरगों का प्रवेश नहीं होता । अर्थात् आत्मा के ज्ञानादि गुरण पुद्गल के गुरण कभी नहीं होते ! पद्गल का स्वभाव प्रात्मा का स्वभाव नहीं बन सकता ! इसो तरह हर द्रव्य के पर्याय भी स्वधर्म के परिणामरुप भिन्न-भिन्न हैं । हालांकि वे परस्पर इतने ओत-प्रोत होते हैं कि उनका भेद करना, वर्गीकरण करना अशक्य है । लेकिन ज्ञानी पुरुष अपने श्रुतज्ञान के माध्यम से उन्हें भलीभाँति जानते हैं और परख सकते हैं । सिद्धसेन दिवाकरजी ने अपने ग्रन्थ 'सम्मतितर्क' में कहा है :
अन्नोन्नाणुरायाणं इमं तं च त्ति विभयणमसक्कं ।
जह दूद्धपाणियाणं जावंत विसेसपज्जाया ॥ 'दूध और पानी की तरह आपस में प्रोत-प्रोत,समरस बने जीव और पुद्गल के विशेष पर्याय में 'यह जीव है और यह पुद्गल है, ऐसा वर्गीकरण करना असंभव है । अत: उन दोनों के अविभक्त पर्यायों को समझना चाहिए !' इस तरह श्रुत-ज्ञान के माध्यम से जीव और पुदगल का भेद-ज्ञान यही 'विद्या' है।
प्रविद्यातिमिरध्वंसे दृशा विद्याञ्जनस्पृशा ।
पश्यन्ति परमात्मानं आत्मान्येव हि योगिनः ॥८॥११२।। अर्थ -: योगीपुरूष, अज्ञान रूपी अंधकार का नाश होते ही विद्या-अंजन को
स्पर्श करने वाली दृष्टि से आत्मा में ही परमात्मा को देखते हैं ! विवेचन :- अनादिकाल से चला आ रहा अविद्या का अंधकार नष्ट होते ही योगीजनों की दृष्टि में तत्त्वज्ञान के अंजन का दर्शन होता है। इस अंजन-अंचित दृष्टि से वह अंतरात्मा में दृष्टिपात करता है। तब उन्हें वहां किसके दर्शन होते हैं ? सच्चिदानन्दमय परमपिता परमेश्वर के! फलस्वरूप महायोगी सच्चिदानन्द की पूर्ण मस्ती में डोल उठता है, और जन्म-जन्मांतर के दुष्कर संघर्ष के पश्चात् प्राप्त अपूर्व, अद्भूत
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