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ज्ञानसार
आत्मबोधो नवः पाशो, देहगेहधनादिषु ।
यःक्षिप्तोऽनात्मना तेषु स्वस्य बन्धाय जायते ॥६॥११०॥ अर्थ : - शरीर, घर और धनादि में आत्मबुद्धि, यानी एक नये पाश का
बंधन ! प्रात्मा द्वारा शरीरादि पर फेंका गया पाश, शरीर के लिए
नहीं बल्कि आत्मबन्धन के लिए होता है । विवेचन : ★ शरीर * घर
धन . * इन सब में आत्मबुद्धि यानी एक अभिनव...अलौकिक पाश! भले ही आत्मा शरीर, धन, घर आदि पर पाश फेंकती है, लेकिन उस पाश से खुद (आत्मा) ही बन्धन में बंधती है । जब कि वास्तविकता यह है कि जिस पर पाश डाला जाए वहीं बंधन में आना चाहिए । लेकिन यहाँ ठीक उसके विपरीत घटना घटित होती है । पाश डालने वाला स्वयं ही उसमें बंधता है । इसीलिए वह अलौकिक और अभिनव पाश है ।
'मैं और मेरा'-इसी अविद्या से प्रात्मा बंधनयुक्त बनती है । इसे परिलक्षित कर पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने संसार के तीन तत्वों की ओर निर्देश किया है ।
शरीर में 'मैं' ! घर और धन में 'मेरा' !
यही 'मैं और मेरा' का अनादिकालीन अहंकार और ममकार (अविद्या), जीव को संसार की भुलभुलैया में भटका रहा है । कर्म के बंधनों में जकड़ रहा है । नरक-निगोद के दुःखों में सड़ा रहा है । दुःख-सुख के द्वंद्व में झुला रहा है ।
शरीर के प्रति 'मैं--पने की बुद्धि बहिरात्मभाव है । 'कायादि बहिरात्मा'-शरीर में आत्मीयता की बुद्धि बहिरात्म-दशा है । ऐसी अवस्था में प्रायः विषयलोलुपता और कषायों का कदाग्रह स्वच्छंदता से पनपता है । उक्त अवस्था के लक्षण हैं : तत्व के प्रति प्रश्रद्धा और गुरणों में प्रद्वेष । आत्मत्व का अज्ञान बहिरात्मभाव का द्योतक है । तभी पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने 'अध्यात्मसार' में कहा है :
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