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ज्ञानसार
तक हम मोह-महाराज द्वारा प्रदत्त प्रांशिक सुख-सुविधाए भोगते रहेंगे तबतक आत्म-द्रोह करते नहीं अघाएगे । बल्कि समय पडने पर अपनी इस कलुषित वृत्ति को नष्ट करने के बजाय बढाते ही जाएगे ! क्या ऐसे घृणित आत्मद्रोही बने रहकर, हम अपनी आत्मभूमि पर मोहमहाराज का राज्य-शासन चिरकाल तक बना रहे, इसमें खुश हैं ?
तरंगतरलां लक्ष्मीमायुर्वायुवदस्थिरम् ।।
अदभ्रधीरनुध्यायेदभ्रवद् भंगुरं वपुः ॥३।।१०७ अर्थ : - निपुण व्यक्ति लक्ष्मी को समुद्र-तरंग की तरह चपल, आयुष्य को
वायु के झोंके की तरह अस्थिर और शरीर को बादल की तरह
विनश्वर मानता है ! विवेचन : लक्ष्मी आयुष्य शरीर
___ इन तीन तत्त्वों के प्रति जीवात्मा का जो अनादि-अनंत काल से दृष्टिकोण रहा है, उसको मिटाकर एक नया लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण अपनाने का आग्रह पूज्य उपाध्यायजी कर रहे हैं । और 'अविद्या' के आवरण को छिन्न-भिन्न, तार-तार करने के लिए ऐसे नव्य दृष्टिकोण की नितान्त आवश्यकता है-यह बात समझने के लिए 'अदभ्रबुद्धि, निपुण-बुद्धि का आधार लेने सूचना दी है।
लक्ष्मी की लालसा, जीवन की चाहना और शरीर की स्पृहा ने जीवात्मा की बुद्धि को कुठित कर दिया है, दिशाहीन बना दिया है। साथ ही साथ उसकी विचारशक्ति को सीमित बना दिया है ! जीव की अन्त:चेतना को मिट्टी के ढेर के नीचे दबा दिया है ! वस्तुतः लक्ष्मी, जीवन और शरीर के 'त्रिकोण' के व्यामोह पर समग्र संसार का बृहद् उपन्यास रचा गया है ! इस उपन्यास का कोई भी पन्ना खोलकर पढो, यह त्रिकोण दिखायी देगा ! राग और द्वेष, हर्ष और विषाद, पुण्य और पाप, स्थिति और गति, आनंद और उद्वग....आदि असंख्य द्वद्वों के मूल में लक्ष्मी, जीवन और शरीर का त्रिकोण ही कार्यरत है ! आशा को मीनारें और निराशाओं के कब्रस्थान इसी त्रिकोण पर खड़े हैं । यदि यों कहें तो अतिशयोक्ति न होगी की पवित्र, उदात्त, आत्मानुलक्षी एवं सर्वोच्च भावनाओं का स्मशान एकमात्र यही त्रिकोण है ! उक्त 'अविद्या त्रिकोण' को उसके वास्तविक
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