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बल्कि साधन प्रतीत होगा । उसके साथ का व्यवहार केवल एक साधन रुप में रह जाएगा । फलतः शरीर-संबंधित अनेकविध पापों से सदा के लिए बच जाओगे, मुक्त हो जायोगे ।
अतः अविद्या के गाढ़ आवरण को छिन्न-भिन्न /विदीर्ण करने का भगीरथ पुरुषार्थ प्रणिधानपूर्वक शुरु कर देना चाहिए । यह सब करते हुए यदि कोई बाधा अथवा रुकावट ग्राये तो उसे दूर कर सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए |
अर्थ :
यः पश्येद् नित्यमात्मानमनित्यं परसंगमम् ।
छलं लब्धुं न शक्नोति तस्य मोहमलिम्लुचः ॥२॥१०६ ॥
ज्ञानसार
जो आत्मा को सदा-प्रविनाशी देखता है, और परपदार्थ के सम्बन्ध को विनश्वर समझता है, उसके छिद्र पाने में मोह रुपी चोर कभी समर्थ नहीं होता |
विवेचन : जो मुनि अपनी आत्मा को अविनाशी मानता है और परपदार्थ के सम्बन्ध को विनाशी देखता है, उस के श्रात्मप्रदेश में घुसने के लिए मोह रूपी चोर को कोई राह नहीं मिलती ! उसकी स्खलना देखने के लिए उसे कोई जगह उपलब्ध नहीं होती ।
यहां निम्नांकित तीन बातों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया गया है :
• आत्मा का अविनाशीरूप में दर्शन ।
@ परपुद्गल - संयोग का विनाशी रूप में दर्शन । • आत्मप्रदेश में मोह का प्रवेश -- निषेध |
यदि मारक मोह की असह्य विडम्बनाओं से मन उद्विग्न हो गया हो और उससे मुक्त होने की कामना तीव्र रूप से उत्पन्न हो गयी हो, तो ये तीन उपाय इस कामना को सफल बनाने में पूर्णतया समर्थ हैं । लेकिन इसके पूर्व मोह को श्रात्मप्रदेश पर पॉव न रखने देने का दृढ संकल्प अवश्य होना चाहिए । मोह के सहारे श्रामोद-प्रमोद और भोगविलास करने की वृत्तियों का असाधारण दमन होना चाहिए। तभी आत्मा की ओर देखने की प्रवृत्ति पैदा होगी और आत्मा का अविनाशी स्वरुप अवलोकन करने की प्रानन्दानुभूति होगी । फलतः पर- पुद्गलों का संयोग व्यर्थं प्रतीत होगा ।
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