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इसी तत्त्वबुद्धि से यानी विद्या से अविद्या का विनाश संभव है । परसंयोग को नित्य मानकर उसमें रात-दिन खोया रहनेवाला रागी जीव उसका वियोग होते ही न जाने कैसा चित्कार / विलाप करता है ? यह तथ्य समझ में न आता हो तो श्री रामचंद्रजी के विरह में व्याकुल सीता की ओर दृष्टिपात करो । समझते देर नहीं लगेगी ! गंदगी और असाध्य रोगों के घर में ऐसे शरीर को पवित्र/शुद्ध मानकर उस पर बेहद प्रेम, प्यार और ममता रखनेवाले मनुष्य को जब उसके असलियत का पता चलता है, तब वह कैसा दिग्मूढ / संभ्रान्त बन जाता है ? क्षणार्ध में ही उसकी सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती है । यदि इस तथ्य पर विश्वास न हो तो सनत्कुमार चक्रवर्ती की ऐतिहासिक जीवनगाथा का अवगाहन अवश्य करें । जड़-चेतन में रहे भेद को न समझनेवाले मनुष्य की उलझन का मूर्तिमंत उदाहरण तुम स्वयं ही हो । जड़ पुद्गल के बिगड़ने या सुधरने पर तुम स्वयं ही कितने राग-द्वेषग्रस्त हो जाते हो ? न जाने कितनी चिंताएं अनायास तुम्हें सताने लगती हैं ?
बिद्या
“जड से मैं अलग हूं, भिन्न हू । जड से मेरा क्या नाता ? वह बिगड़े या सुधरे, उस से मुझे कोई सरोकार नहीं" । प्रस्तुत वृत्ति रागद्व ेष की भयंकर समस्या को सुलझा सकती है और आत्मा समभाव में रह सकती है ।
" पुद्गल का संयोग अनित्य है । उसके बल पर में सुख का भवन खड़ा नहीं करूंगा,....सुहाने सपने नहीं सजाऊँगा । ऐसे संयोग को भूलकर भी कभी नित्य नहीं मानूंगा, बल्कि मेरी अपनी आत्मा ही नित्य है ।" इस तत्व-वृत्ति के अंगीकार करने पर संयोग-वियोग के विकल्प से उत्पन्न विकलता / विह्वलता को दूर किया जा सकता है और फलस्वरूप आत्मा प्रशम - सुख का अनुभव कर सकती है ।
“सिर्फ मेरी आत्मा ही पवित्र है । वह पूर्णतया शुद्ध / विशुद्ध और सच्चिदानन्द से युक्त है ।" ऐसा यथार्थ दर्शन होते ही अपने शरीर को पवित्र एवं निरोगी बनाये रखने का पुरुषार्थ रूक जाएगा । साथ ही पुरुषार्थ करते हुए प्राप्त निष्फलता / श्रसफलता के कारण उत्पन्न अशांति दूर हो जाएगी । तब परिणाम यह होगा कि शरीर साध्य नहीं लगेमा,
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