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मौन
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अर्थ :- जिस तरह मणि (रत्न) के संबंध में कोइ प्रवृत्ति न की जाय
अथवा उक्त प्रवृत्ति का फल निष्पन्न न हो, वह मणि का ज्ञान और मरिण की श्रद्धा अवास्तविक (कृत्रिम) है,
ठीक वैसे ही शुद्ध प्रात्म-स्वभाव का प्रावरण अथवा दोष की निवत्ति-स्वरुप कोई फल प्राप्त न हो, वह ज्ञान नहीं और ना ही
श्रद्धा है। विवेचन :- वास्तव में जो मरिण नहीं है, बल्कि निरा कांच का टुकड़ा है, उसे अपनी कल्पना के बल पर रत्न मानकर, 'वह रत्न है, कहने से, क्या हमारा माना हुआ रत्न, असली रत्न की प्रवृत्ति करेगा ? वास्तविक रत्न का काम देगा क्या ? साथ ही, असली मरिण-मुक्ता से प्राप्त होने वाला फल उक्त कल्पित वस्तु से प्राप्त हो जाएगा क्या ? अर्थात् जिस में मणि-मुक्ता के गुणों का सर्वथा अभाव है, उससे कोई फल मिलने वाला नहीं है । उसके प्रति 'यह रत्न है, कह कर श्रद्धा रखना अतात्विक है, असत्य है । वास्तविक मरिण भयंकर से भयंकर विषधर का विष उतारने का सर्वोत्तम कार्य करता है । तब क्या कांच का टुकड़ा (कृत्रिम मरिण) विष उतारने का कार्य करेगा? असली मरिण यदि किसी जौहरी के हाथ बेचा जाए तो लाखों की संपत्ति देगा, लेकिन कांच के टुकड़े के लाख रूपये प्राप्त होंगे क्या ?
ठीक उसी तरह, जिससे आत्मस्वभाव में किसी प्रकार की कोई प्रवत्ति न हो और शुद्ध आत्मा का फल-'दोषनिवृत्ति' का भी प्राप्त न होता हो, ऐसा ज्ञान, ज्ञान नहीं और ना ही ऐसी श्रद्धा श्रद्धा है।
- ज्ञान और श्रद्धा को नापने का न जाने कैसा अदभत यंत्र यहाँ बताया गया है ! क्या शुद्ध प्रात्मस्वभाव की निकटता साधनेवाला... आत्मस्वभाव का सही अनुसरण करनेवाला आचरण है ? क्या तुम्हारे भीतर वर्षों से घर कर गए राग-द्वेष और मोह, समय के साथ कम होते जा रहे हैं ? यदि इन प्रश्नों का उत्तर हकार में है तो तुम्हारा प्रात्मज्ञान और तुम्हारी आत्मश्रद्धा शत-प्रतिशत यथार्थ है । तुम्हारे आचरण में विशुद्ध आत्मा को ओजस्विता होनी चाहिए, कर्मों के कलंक-पंक की गहरी कालिमा नहीं, ना ही कर्मा के विचित्र प्रभाव ! .
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