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ज्ञानसार
का मिलन हो और अप्रिय का वियोग हो, प्रिय का कभी विरह न हो और अप्रिय का मिलन....!' ऐसे संकल्प-विकल्पों के माध्यम से उत्पन्न विचारों के त्याग का ही दूसरा नाम मन का मौन है । ..
मिथ्या वचन न बोलें, अप्रिय और अहितकारी शब्दोचार न करें, कड़वे और दिल को आहत करनेवाली वाणी का जीवन में कभी अवलम्बन न लें। क्रोधजन्य, अभिमानजन्य, कामजन्य, मायाजन्य, मोहजन्य और लोभजन्य बात जबान पर न लाना, यानी वचन का मौन | वाचिक मौन कहा जाता है । पौद्गलिक भाव की निंदा और प्रशंसा न करना वाचिक मौन है !
काया से पुद्गल-भावपोषक प्रवृत्ति का परित्याग करना, यह काया का मौन कहलाता है ! इस तरह मन, वचन, काया के मौन को ही यथार्थ मौन की संज्ञा दी गई है। जिस तरह मौन का यह निषेधात्मक स्वरूप है, उसी तरह विधेयात्मक स्वरूप भी है :
____ निरंतर अपने मन में आत्मभावपोषक विचारों का संचार कर क्षमा, नम्रता, विनय, विवेक, सरलता एवं निर्लोभता के भावों में सदासर्वदा खोये रहना । अहिंसा, सत्य, अचोर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह के मनोरथ रचाना ! आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ध्यान धरना आदि क्रियाएं मानसिक मौन ही है । इसी तरह वाणी से प्रात्मभावपोषक कथा करना....शास्त्राभ्यास और शास्त्र-परिशीलन करना, परमात्मस्तुति में सतत लगे रहना....जैसे कार्य वाचिक मौन के ही द्योतक हैं । वचन का मौन कहलाता है । जब कि काया के माध्यम से प्रात्मभाव की ओर प्रेरित और प्रोत्साहित करती प्रवृत्तियां करना, कायिक मौन है । ___ मन, वचन, काया के योगों की पुद्गलभावों से निवृत्ति और आत्मभाव में प्रवृत्ति, यह मुनि का मौन कहलाता है । ऐसे मौन को धारण कर मुनि मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ता जाता है । इस तरह के मौन से प्रात्मा को पूर्णानन्द की अनुभूति होती है। इसी मौन के कारण आत्मा की अनादिकालीन अशुभ वृत्ति-प्रवृत्तियों का अंत आता है और वह शुद्ध एवं शुभ प्रवृत्तियों की ओर गतिमान होती है । ऐसे मौन
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