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ज्ञानसार
जीवात्मा का पात्मज्ञान एवं आत्मश्रद्धा प्रायः मानसिक, वाचिक और कायिक आचरण को प्रभावित करती है । 'मैं विशुद्ध आत्मा हूँ.... सच्चिदानंदस्वरुप हूँ ।' परिणामस्वरुप उसके मनोरथ कल्पनाएँ, स्पहाएँ कामनाएँ और अनंत अभिलाषाएँ पौद्गलिक भावों से पराङमुख बन आत्मभावों के प्रति अभिमुख हो जाती है । उसकी वाणी विभावों की निंदा-प्रशंसा से निवृत हो, आत्मभाव की अगम-अगोचर रहस्य-वार्ताओं को प्रकट करने का सर्वोत्तम साधन बन जाती है । उसका इन्द्रियव्यापार शब्द, रूप, रस, गंध, और स्पर्श के सुख-दु:ख से निवृत्त हो आत्माभिव्यक्ति के पुरुषार्थ में लीन हो जाता है ।
ऐसे किसी ज्ञान अथवा श्रद्धा के सहारे हाथ पर हाथ धर बैठे न रहना चाहिए कि जिस ज्ञान-श्रद्धा द्वारा विशुद्ध प्रात्मस्वरुप प्रकट करने का पुरुषार्थ न होता हो । प्रात्मा के ज्ञानादि गुरणों में रमरणता न होती हो । पौद्गलिक प्रेम की धारा अविरत रूप से प्रवाहित हो, दारूण द्वेष की ज्वाला तन-बदन को झुलसा रही हो और मोह-माया का धना अंधेरा प्रात्मा पर आच्छादित होता हो । ज्ञान के तीक्ष्ण शस्त्र से पुद्गल-प्रेम की विष-वल्लरी का छेदन करना चाहिए । ज्ञान के शीतल जल से दारुण द्वष की ज्वाला को बुझाना/शांत करना चाहिए। ज्ञान की दिव्य-ज्योति से मोह-माया के अंधकार को दूर भगाना चाहिए। यही तो ज्ञान-श्रद्धा का परिणाम है, फल है ।
हृदय की पवित्र वृत्ति और वचन-काया के विशुद्ध कार्य-कलाप, दोनों की विशुद्धि दिन दुगुनी रात चौगुनी वृद्धिंगत होनी चाहिए । फलस्वरूप आत्मा आन्तरिक सुख का अनुभव करती जाती है । मधुरतम शान्ति और अद्भुत प्रानन्द में खो जाती है । तात्पर्य यही कि हमें ऐसे ज्ञान और श्रद्धा को आत्मसात् करना चाहिए कि जिससे वृत्ति एवं प्रवृत्ति दोनों प्रात्माभिमुख बन जाए । फलतः दोष क्षीण होते जायेंगे और गुणों का विकास होता जाएगा।
यथा शोफस्य पुष्टत्वं यथा वा वध्यमण्डनम् ।
तथा जानन्भवोन्मादमात्मतृप्तो मुनिर्भवेत् ॥ ६ ॥१०२।। अर्थ :- जिस तरह नित्य बढ़ते सूजन अथवा वध करने योग्य पुरुष (बलि )
को कर्ण-पुष्पों (करन-फूल) की माला पहना कर सुशोभित करते
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