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ज्ञानसार
करना चाहिए ! यदि उसके जीवन में कहीं कोई दु:ख है तो निरीक्षण करना चाहिए कि वह कहां से उत्पन्न हआ और किस कारण हमा ? तब उसे ज्ञात होते विलम्ब न लगेगा कि किसी जड़-चेतन पदार्थ की स्पृहा वहां विद्यमान है, जिसके कारण उस के जीवन में दुःख का प्रादुर्भाव हुआ है ! भोगी हो या योगी, पर- पदार्थ की स्पृहा पैदा होते ही वह दुःख का शिकार बन जाता है । जब कि पर-पदार्थ की स्पृहा दूर होते ही अनायास सुख का आगमन होता है ! जब तक राजकुल का भोजन प्रिय, स्वादिष्ट न लगा तब तक कंडरिक मुनि परम सुखी थे ! लेकिन राजकुल का भोजन इष्ट लगते ही स्पहा जग पड़ी ! परिणामतः शीघ्र ही वे दु:खी बन गये। उन्होंने साधु-जीवन की मर्यादाओं का उल्लंघन किया, श्रमण-जीवन का त्याग किया और अपनी स्पृहा को पूरी करने के प्रयास में कालकवलित हो गये ! सातवी नरक के महादुःख के भँवर में फंस गये !
जीवन में जाने-अनजाने कहीं पर-पदार्थ की स्पहा जाग न पड़े, अतः पर- पदार्थो से जहां तक हो सके कम परिचय करना चाहिए ! पर-पदार्थो के माध्यम से प्राप्त सुख की कामना का परित्याग करना चाहिए ! क्यों कि यही वह स्थान है, जहाँ जीव को फिसलते देर नहीं लगती! 'पर- पदार्थ सुख का द्योतक है, यह कल्पना मानवजीवन में इतनी तो रूढ हो गयी है कि जीव निरंतर उस की झंखना करता रहता है ! और जैसे जैसे पर पदार्थों की प्राप्ति होती जाती है, वैसे-वैसे लालसा, स्पहा, पाशातीत बढती ही जाती है। उसी अनुपात से दुःख भी बढता जाता है ! फिर भी समय रहते वह समझ नहीं पाता कि उसके दुःख का मूल कारण पर-पदार्थ की स्पृहा ही है ! वह तो यही मान बैठा है कि 'मुझे इच्छित पदार्थ नहीं मिलते इसलिये में दुःखो हूँ !' उसकी यही कल्पना उसे मनपसंद पदार्थ की प्राप्ति हेतु, पुरुषार्थ करने के लिए प्रेरित करती है ! फलस्वरूप उसका दु:ख दूर होना तो दूर रहा, बल्कि अपना जीवन पूरा कर वह अनंत विश्व की जीव-सृष्टि में खो जाता है !
पूज्य उपाध्यायजी की 'निःस्पृहत्वं महासुखम्' सूक्ति के साथ 'भक्तपरिज्ञा पयन्ना' सूत्र का निरवेक्खो तरइ वुत्तरभवोऽयं' वचन
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