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नि:स्पृहता में मनुष्य जो भी अनुचित कर रहा है, दिन-रात पापाचरण में डूबा हुआ है, उसके मूल में पर पदार्थ की स्पृहा ही काम कर रही है ! जब जीवात्मा पराधीन-सुख की स्पृहा से ऊपर उठेगा तब ही उस के दुःख-दर्द और अशान्ति का निर्मूलन होगा ! ठीक वैसे ही प्राप्त पौद्गलिक सुख भी पराधीन ही हैं, स्वाधीन नहीं । अतः उसके प्रति भी मन में इस कदर ममत्व नहीं होना चाहिए कि जिस के काफूर होते ही मनुष्य विलाप कर उठे, आक्रंदन करने लगे ।
इसीलिए निःस्पृह महात्मा महान सुखी माने गये हैं। क्योंकि पराधीन सुखों की स्पृहा से ऊपर उठ चूके होते हैं। जैसे कीचड़ बीच कमल ! यदि कोई उन्हें भोगोपभोग का अाग्रह करें तब भी वे स्वीकार नहीं करते । ठोक उसी उनके पास रहे अति अल्प पराधीन पदार्थों के प्रति भी वे ममत्व नहीं रखते । भले ही वे (पराधीनपदार्थ) चले जाए, शरीर का भी विसर्जन हो जायं, योगी पुरुषों को उसकी तनिक भी परवाह नहीं होती, अतः वे सुखी हैं !
परस्पृहा महादुःखं नि:स्पृहत्वं महासुखम् ।
एतदुक्तं समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ।।८॥३६॥ अर्थ : परायी पाशा-लालसा रखना महादुःब है, जब कि निःस्पृहत्व महान
सुख है ! संक्षेप में दुःख और सुख का यही लक्षण बताया है ! विवेचन: यदि सुख और दुःख की वास्तविक परिभाषा करने में भूल हो जाए तो मनुष्य सुख को दुःख और दुःख को सुख मान लेता है ! फलत: अशांति, कलह और संताप से दुःखी बन जाता है ! सामान्य तौर पर मनुष्य बाह्य पदार्थों के संयोग-वियोग को सुख-दुःख मान लेता है ! ठीक वैसे ही बाह्य दुनिया के जड़-चेतन पदार्थ को वह सुख-दुःख का दाता मान लेता है ! अत: उस का कभी समाधान नहीं होता । . ___जब कि सुख-दुःख तो मन की कोइ धारणा, कल्पना मात्र है। बाह्य दुनिया के किसी पदार्थ की प्राप्ति न हुई हो, फिर भी उसकी स्पृहा पैदा हो जाएँ तो दु:खारंभ हो जाता है ! जही 'जहां पर-स्पृहा वहांवहां दुःख' जहां पर- स्पृहा का अभाव वहां दुःख का नामोनिशान नहीं !' प्रस्तुत सिद्धान्त में न तो अतिव्याप्ति है, न अव्याप्ति है और ना ही असंभव दोष है ! हर व्यक्ति को अपने जीवन पर दृष्टिपात
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