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अर्थ :
ज्ञानाचरादयोऽपीष्टाः, शुद्धस्वस्वपदावधि |
निर्विकल्पे पुनस्त्यागे, न विकल्पो न वा क्रिया ।। ६ ।। ६२ ।। ज्ञानाचारादि प्राचार भी अपने-अपने शुद्ध पद की मर्यादा तक ही इष्ट है । लेकिन विकल्प-विरहित त्याग की अवस्था में न तो कोई विकल्प है, ना ही कोई क्रिया ।
ज्ञानसार
विवेचन : शुद्ध संकल्पपूर्वक की गयी क्रिया फलदायी सिद्ध होती है । सद्गुरू के पास 'ग्रहण' और 'आसेवन' शिक्षा प्राप्त करने की है । खास तौर से ज्ञानाचारादि श्राचारों का पालन करना होता है और वह भी शुद्ध संकरूपपूर्वक करना चाहिये ।
* ज्ञानाचार की आराधना तब तक करनी है, जब तक ज्ञानाचार का शुद्ध पद केवलज्ञान प्राप्त न हो जाए । हमेशा आराधना करते समय इस बात की गांठ बांध लेनी चाहिये कि, 'ज्ञानाचार के प्रसाद से केवलज्ञान अवश्य प्राप्त होगा ।'
* दर्शनाचार की आराधना तब तक करनी चाहिये, जब तक हमें क्षायिक समकित की उपलब्धि न हो जाये ।
* चारित्राचार की उपासना उस हद तक करनी चाहिये, जब तक 'यथाख्यात चारित्र' की प्राप्ति न हो जाये ।
* तपाचार का सेवन तब तक किया जाए, जब तक 'शुक्लध्यान'" की मस्ती सर्वांग रुप से आत्मा में प्रोत-प्रोत न हो जाये ।
* वीर्याचार का पालन तब तक ही किया जाय, जब तक आत्मा में अनंत विशुद्ध वीर्य का निर्बोध संचार न हो जाये ।
इस तरह का निश्चय और संकल्प शक्ति, जीवात्मा के लिये परम फलदायी और शुभ सिद्ध होती है । जबकि संकल्पविहीन क्रिया प्राय: निष्फल सिद्ध होती है । केवलज्ञान, क्षायिक दर्शन, यथाख्यात चारित्र, शुक्ल - ध्यान और अनंत विशुद्ध वीर्योल्लास की प्राप्ति का दृढ़ संकल्प रख, ज्ञानाचारादि में सदा-सर्वदा पुरुषार्थशील बनना है । ज्ञानाचारादि के लिये तब तक ही पुरुषार्थ करना चाहिये, जब तक उनके उनके शुद्ध पद की प्राप्ति न हो जाए । जब तक हमारी अवस्था शुभोपयोग वाली है और सविकल्प है, तब तक निरन्तर ज्ञानाचारादि पंचाचार का पालन करना अति आवश्यक है ।
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