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ज्ञानसार
तब यह प्रश्न खड़ा होगा कि भोजन कौन सा किया जाए ? लेकिन यों घबराने से काम नहीं चलेगा । शान्ति से विचार करोगे, तो उसका मार्ग भी निकल पाएगा । सर्व रसों से परिपूर्ण, अजेय शक्तिदायी और यौवन को प्रखंड रखने वाला भोजन भी तुम्हारे लिये तैयार है । तुम इसे ग्रहण करने के लिये अपना भोजन-पात्र जरा खोलो | उफ, तुम्हारा पात्र तो गंदा है । उसमें न जाने कैसी गंदगी है ? दुर्गन्ध उठ रही है ! पहले अपने पात्र को स्वच्छ करो । अस्वच्छ
और गंदे पात्र में भला ऐसा उत्तम और स्वादिष्ट भोजन कैसे परोसा जाये ? गंदे पात्र में ग्रहण किया गया सवोत्तम भोजन भी गन्दा, अस्वच्छ और दुर्गन्धमय होते देर नहीं लगती । वह असाध्य बीमारी और रोगों का मूल बन जाता है । अरे भाई, तुम्हारे सामने ऐसा सरस, स्वादिष्ट और सर्वोत्तम भोजन तैयार होने पर भी भला तुम्हें जूठे भोजन का मोह क्यों है ? क्या तुम जूठन का मोह छोड़ नहीं सकते ? आज तक बहुत खा ली जूठन ! अब तो जठन खाने का दुराग्रह छोड़ो । क्या तुम नहीं जानते कि जूठन खा-खाकर तुम्हारा शरीर न जाने कैसी भयंकर बीमारी और असाध्य रोगों का घर बन गया है ?
श्रावक-जीवन और साधु-जीवन की पवित्र क्रियायें ही यथार्थ में कल्पवृक्ष के मधुर फल हैं, उत्तम खाद्य है । लेकिन भोजन करने के पूर्व प्रात्मा रुपी भाजन में रही पाप-क्रियाओं की जूठन को बाहर फेंक, कर भाजन को स्वच्छ करना आवश्यक है । मतलब यह है कि पापक्रियाओं का पूर्ण रूप से त्याग कर धर्मक्रियाओं का प्रालंबन ग्रहण किया जाए, तभी भोजन के अपूर्व स्वाद का अनुभव हो सकता है ।
भोजनोपरान्त मुखवास की भी गरज होती है न? स्वर्गीय सुवास से युक्त समता ही मुखवास है । ज्ञान का अमृत-रस पीकर और सम्यक-क्रिया के स्वादिष्ट भोजन का सेवन करने के पश्चात् यदि समता का मुखवास ग्रहण न किया, तो सारा मजा किरकिरा हो जाएगा । भोजन का अपूर्व प्रानन्द अधूरा ही रह जाएगा और तृप्ति की डकारें नहीं आयेगी ।
गहन/गंभीर चिन्तन-मनन के पश्चात् प्राप्त पर तृप्ति के मार्ग को परिलक्षित कर, जब हृदयभाव-संचार की ओर प्रवृत्त होता है
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