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ज्ञानसार अर्थ :- "आत्मा निलिप्त है " ऐसे निलेप भान के ज्ञान में मग्न बने जीव
को प्रावश्यकादि सभी क्रियायें, केवल ' प्रात्मा कर्मबद्ध है, ऐसे
लिप्तता के ज्ञानागमन को रोकने के निये उपयोगी होती हैं । विवेचन :- जिस के आत्म-प्रदेश पर 'मैं निलिप्त हूँ, ऐसे निर्लेपता ज्ञान की धारा अस्खलित गति से प्रवाहित होती हो, ऐसे योगी महापुरुष के लिये आवश्यक प्रतिलेखनादि क्रियाओं का कोई प्रयोजन नहीं रहता। क्यों कि आवश्यकादि क्रियाओं का प्रयोजन तो सिर्फ विभावदशा में यानी लिप्तता-ज्ञान में गमन करती चित्तवृत्तियों को अवरुद्ध करने के लिये है ।
इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा जब तक अविरत रूप से प्रमादकेन्द्रों की तरफ आकर्षित होती है, तब तक आवश्यकादि क्रियायें जीव के लिये महान उपकारक और हितकारी हैं। इन क्रियाओं के माध्यम से जीव विषय-कषायादि प्रमादों से बाल-बाल बच जाता है। प्रस्तुत प्रमाद - अवस्था छठे गुणस्थानक तक ही सीमित है। जब कि 'प्रमत्त-संयत' गुणस्थान तक प्रतिक्रमण-प्रतिलेखनादि बाह्य धर्मक्रियायें करने का विधान है। जब तक जीव प्रमादसंयुक्त होगा, तब तक निरालम्ब (पालम्बन-रहित) धर्म - ध्यान टिक नहीं सकता । उक्त तथ्य का उल्लेख 'गुणस्थान - क्रमारोह में किया गया है :
यावत् प्रमादसंयुक्तस्तावत्तस्य न तिष्ठति । धर्मध्यानं निरालम्बमित्यूचुजिनभास्कराः ॥
- गुणस्थान कमारोहे अर्थात जब तक विषय- कषायादि प्रमाद का जोर है, तब तक निर्लेप-ज्ञान में तल्लीन होने की वृत्ति पैदा नहीं होती। ऐसी परिस्थिति में यदि आवश्यकादि को तजकर निश्चल ध्यान की शरण ले लें, तो 'अतो भ्रष्ट: ततो भ्रष्ट:' सदृश भयंकर स्थिति पैदा होते विलम्ब नहीं लगता । कुछ लोग प्रतिक्रमणादि क्रियाओं से ऊबकर निश्चल ध्यान की ओर आकर्षित होते हैं, लेकिन इस तरह करने से न तो उनकी विषयकषायादि की वृत्ति-प्रवृत्ति क्षीण बनती है, ना ही वे अगले गुणस्थान पर आरूढ हो सकते हैं । ऐसे लोग जैन दर्शन की सूक्ष्मता समझने में * गुणस्थानक के स्वरूप को जानने के लिये परिशिष्ट देखिये ।
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