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निले पता
१४५ व्यवहार से तीर्थ (प्रवचन) की रक्षा होती है, जबकि निश्चय से सत्यरक्षा । जिनमत का रथ, निश्चय और व्यवहार के दो पहियों पर अवस्थित है । अतः जिनमत द्वारा आत्मविशुद्धि का प्रयोग करने वाले साधक को हमेशा व्यवहार और निश्चय के प्रति सापेक्ष दृष्टि रखनी चाहिये । सापेक्ष दृष्टि एक प्रकार से सम्यग् दृष्टि ही है जबकि निरपेक्षदृष्टि मिथ्याष्टि है।
सापेक्षदृष्टि उद्घाटित होते ही जीवात्मा में ज्ञान-क्रिया का अद्भुत संगम होता है । फलस्वरूप प्रात्मा निरन्तर विशुद्ध बनती जाती है और उसकी गुण-समृद्धि प्रकट होती है। सापेक्ष दृष्टि के मेघ से बरसता प्रानन्द-अमृत आत्मा को अजरामर-अक्षय बनाने के लिये पूर्ण रूप से समर्थ होता है। जबकि निरपेक्ष दृष्टि से रिसता रहता है क्लेश, अशान्ति और असंतोष का जहर !
सज्ञानं यदनुष्ठानं, न लिप्त दोषपंकतः ।
शुद्ध वुद्धस्वभावाय, तस्मै भगवते नमः ॥८।।८८।। अर्थ :- जिसका ज्ञानसहित क्रियारुप अनुष्ठान दोष रुपी मैल से लिप्त नहीं
है और जो शुद्ध-बुद्ध ज्ञान स्वरुप स्वभाव के धारक हैं, ऐसे भगवान
को मेरा नमस्कार हो । विवेचन :- जो भी क्रिया हो, ज्ञानसहित होनी चाहिये । ठीक उसी तरह ज्ञानयुक्त क्रियानुष्ठान दोष के कीचड़ से सना हुआ न हो ।
ज्ञानयुक्त (सज्ञान) क्रियानुष्ठान क्या होता है और किसे कहा जाता है ? मतलब, जो भी क्रिया हम करते हों, उसका स्वरूप, विधि और फल को जानकारी हमें होनी चाहिये । सिर्फ प्रात्मशुद्धि के एकमेव पवित्र फल की आकांक्षा से हमें प्रत्येक क्रियानुष्ठान करना चाहिये । यह आदर्श सदा-सर्वदा हमारे आचार-विचार से प्रकट होना चाहिये कि 'मुझे अपनी आत्मा की शुद्ध-बुद्ध अवस्था प्राप्त करना है ।' क्रिया में प्रवत्त होते हो उसकी विधि जान लेनी चाहिये और विधिपूर्वक क्रियानुष्ठान करना चाहिये । क्रियानुष्ठान के विधि-निषेध के साथ-साथ जिनमतप्रणीत मोक्षमार्ग का यथार्थ ज्ञान मुमुक्षु आत्मा को होना निहायत जरूरी है।
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