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नि:स्पृहता
किसी से छिपा नहीं है कि जो-जो लोग उसके शिकार बने, उन्हें सर्वस्व का भोग देकर दीन-हीन याचक बनना पड़ा है ! महीन वस्त्र, उत्तम पात्र, उपधि, मान-सम्मान, खान-पान, स्तुति-स्वागत किसी की भी स्पृहा नहीं करनी चाहिए ! स्पृहा की तीव्रता होते ही भलभले अपना स्थान-भूमिका और आचार-विचार को तिलांजलि दे देते हैं ! "मैं कौन ? मैं भला ऐसी याचना करू....१....करबद्ध और नतमस्तक हो दीन-स्वर में भीख मांगू ? यह सर्वथा उचित नहीं है !'
निःस्पृह मुनिराज ही अनंतज्ञान के, केवलज्ञान के पात्र हैं ? जो अनंतज्ञान का अधिकारी है वह भूले भटके भी कभी पुद्गलों की स्पृहा नहीं करेगा ! सोना और चांदी उसके लिए मिट्टी समान है ! गगनचुम्बी इमारतें ईंट-पत्थर से अधिक कीमत नहीं रखती और रुप-सौन्दर्य का समूह केवल अस्थिपंजर है ! सारे संसार को तृणवत् समझ, नि:स्पृह बना रहने वाला योगी/मुनि परमब्रह्म का आनंद अनुभव करता है ! असीम अात्मस्वातंत्र्य की मस्ती में खोया रहता है ! ऐसी उत्कट नि:स्पृह-वृत्ति पाने के लिए जीवन में निम्नांकित उपायों का अवलम्बन करना चाहिए: ___*"मेरे पास सब कुछ है ! मेरी अात्मा सुख और शांति से परिपूर्ण है ! मुझे किसी बात की कमी नहीं ! मेरी आत्मा में जो सर्वोत्तम सूख भरा हुआ है, दुनिया में ऐसा सुख कहीं नहीं ! तब भला, मैं इस को स्पहा क्यों करूँ ?" ऐसी भावना से निज प्रात्मा को भावित रखनी चाहिए !
० " मैं जिस पदार्थ की स्पृहा करता हूँ, जिसके पीछे दीवाना बन, रात-दिन भटकता रहता हूँ, जिसकी वजह से परमात्म-ध्यान अथवा शास्त्र- स्वाध्याय में मन नहीं लगता, वह मिलना सर्वथा पुण्याधीन है ! पुण्योदय न होगा तो नहीं मिलेगा ! जब की उसकी निरंतर स्पृहा करने से मन मलिन बनता है ! पाप का बन्धन और अधिक कसता जाता है ! अतः ऐसी परपदार्थ की स्पहा से क्यों न मुख मोड़ लं?" ऐसे विचारों का चिंतन - मनन करते हुए, जीवन की दिशा को ही बदल देना चाहिए !
• “यदि मैं परपदार्थो की स्पृहा करूँगा तो निःसंदेह जिनके पास ये हैं, उनकी मुझे गुलामी करनी पड़ेगी, दीर्घकाल तक उसका गुलाम
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