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निःस्पृहता
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विवेचन : स्पृहा और अनात्म-रति का गाढ़ सम्बन्ध है ! दोनों एक-दूसरे से घुल-मिलकर रहती हैं ! स्पृहा अनात्म-रति के बिना रह नहीं सकती और अनात्म-रति स्पृहा के सिवाय नहीं रहतो ! यहाँ पूज्यउपाध्यायजी महाराज तृष्णा को घर से बाहर करने की सलाह देते हुए कहते हैं कि स्पृहा अनात्म-रति की संगत करती है । अर्थात् उसे घर-बाहर कर देना चाहिए ! क्योंकि वह अनात्म-रति का संग करती रहती है !
स्पृहा कहती है : 'मेरा ऐसा कौन सा अपराध है कि मुझे घर बाहर करने के लिए तत्पर हैं ?
उपाध्यायजी : तुम अनात्म-रति की संगत जो करती हो !' स्पृहा : “ इससे भला, आपका क्या नुकसान होता है ?"
उपाध्यायजी : 'बहुत बड़ा नुकसान, जिसकी पूर्ति करना प्रायः असंभव है! तुम दोनों साथ में मिलकर हमारी गृहलक्ष्मी जैसी 'प्रात्मरति' को ही हैरान-परेशान और निरंतर व्यथित करती हो ! जब कि वह हमारे घर की सुशील रानी है ! और हमारे घर की एक मात्र आधारस्तंभ है ! उसका अस्तित्व ही मटियामेट करने के लिए तुम दोनों तूली हुई हो ! यदि तुम महाभयंकर अनात्म-रति का साथ छोड़कर सुंदर, सुभग, कमनीय ऐसी आत्म-रति का हाथ पकड लो तो हम प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें हमारे मन-मंदिर में रहने की अनुमति दे सकते हैं ! बशर्ते कि तुम्हें उस चांडालिनी (अनात्म-रति) का साथ छोड़ देना होगा !
तब सवाल यह उठता है कि 'अनात्म-रति' क्या है, जिसे छोड़ने का उपाध्यायजो महाराज ने बार-बार आग्रह किया है ! अनात्म-रति मतलब जड़रति.... पुदगलानंद ! जड़ पदार्थों के प्रति एक बार आकर्षण हो जाने पर उससे जिस सुख की कल्पना की जाती है, और उस कल्पना के जरिये जो विविध प्रकार की मृदुता-मधुरता का प्राभास होता है, उसे ही अनात्म-रति कहा गया है ! यदि अनात्म-रति को समय रहते सदविचार, तत्वचिंतन और अध्यवसाय से रोका न जाए, उसका मार्ग अवरुद्ध न किया जाय तो वह जिन पदार्थों को लेकर जागृत होती है, उन्हीं पदार्थों के पीछे स्पृहा उतावली बन दौड़ने लगती है ! और उसकी गति इतनी तो तीव्र वेगवती होती है कि कालान्तर
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