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निःस्पृहता
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ऐसे अवसर पर तुम्हारी विद्वत्ता, आराधकता और साधकता का दारो-मदार इस बात पर अवलम्बित है कि तुम श्रनात्म-रति समेत स्पृहा को अपने आत्म- गृह से निकाल बाहर करते हो अथवा नहीं ! यदि उन्हें निकाल बाहर करते हो तब तो तुम सही अर्थ में साधक, श्राराधक और विद्वान् हो, वर्ना कतई नहीं !
स्पृहावन्तो विलोक्यते, लघवस्तृणतूलवत् !
महाश्चर्य तथाप्येते, मज्जन्ति भववारिधौ ॥ ५ ॥ ६३ ॥
अर्थ :- स्पृहावाले तिनके और आक के कपास के रोएँ की तरह हलके दिखते हैं, फिर भी वे संसार-समुद्र में डूब जाते हैं ! यह श्राश्चर्य की बात है !
विवेचन :- याचना और भीख, मनुष्य का नैतिक पतन करती हैं ! किसी एक विषय की स्पृहा जगते ही उसकी प्राप्ति के लिए याचना करना, भीख माँगना और चापलूसी करना साधनासंपन्न मुनिराज के लिए किसी भी रूप में उचित नहीं है ! साधु को भूलकर भी कभी स्पृहावन्त नहीं बनना चाहिए !
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महा सामर्थ्यशाली स्थूलिभद्रजी की स्पर्धा करने के लिए कोशा गणिका के आवास में जाने वाले सिंहगुफावासो मुनिवर की कलंककथा क्या तुम्हें विदित नहीं है ? 'मगध- नृत्यांगना कोशा की चित्रशाला मैं भी चातुर्मास करूँगा, ऐसे मिथ्या आत्मविश्वास और संकल्प के साथ वे उसके द्वार पर गये, और कोशा की कमनीय काया के प्रथम दर्शन से और उसके मधुर स्वर से प्रस्फुरित शब्दों का श्रवण करते हो सिंहगुफावासी मुनिवर का सिंहत्व क्षणार्ध में हिरन हो गया ! वे गलितगात्र हो गये ! अनात्म-रति पुरजोर से जग पड़ी ! स्पृहा ने उसका सक्रिय साथ दिया ! फलतः सिंहगुफावासी मुनिवर नृत्यांगना कोशा के सुकोमल काया की स्पृहा के विष से व्याप्त हो गए ! प्रगाढ अरण्य, घने जंगल और असंख्य वनचर पशु-पक्षियों पर अधिपत्य रखने वाले वनराजों के बीच चार-चार माह तक एकाग्रचित्त ध्यानस्थ रहनेवाले महान सात्विक और मेरू सदृश निष्प्रकम्प बनकर, चातुर्मास करनेवाले महापुरुषार्थी, महातपस्वी मुनिवर कोशा के सामने तिनके से भी हलके दुर्बल बन गए ! आक को रूई से भातुच्छ बन गए ! कोशा गरिणका की
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