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ज्ञानसार योगो अपनी उच्चता, सर्वोपरिता की कल्पना नहीं करता । देश-परदेश में आबाल-वृद्ध के मुखपर रहे अपने नाम से उसके हृदय को खुशी नहीं होतो । उसके मन यह सब 'परभाव-पुद्गलभाव' होता है ! जब पुदगल पर से उसका जी पहले ही उचट गया है, तब भला वह आनंद कैसे मानेगा ?
अरे, इतना ही नहीं बल्कि निखिल विश्व में फैली उसकी कीर्ति, यश, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा का वह जाने-अनजाने स्वसुख, स्वसंरक्षण के लिए भूलकर भी कभी उपयोग नहीं करेगा ! क्यों कि वह शरीर और शारीरिक सुख से सर्वथा निःस्पृह होता है ! जब कंचनपुर-नरेश क्रोधित हो, नंगी तलवार लिये, उत्तेजित बन झाँझरिया मुनि की हत्या करने झपट पड़ा, जानते हो, तब मुनिवर ने क्या किया ? उन्होंने क्या यह बताया कि 'राजन् ! तुम किसकी हत्या करने आये हो ? क्या. तुम मुझे जानते हो ? प्रतिष्ठानपुर के मदनब्रह्मकुमार को तुम नहीं जानते ? क्या तुम्हें नहीं मालूम कि कुमार ने राजपद का परित्याग कर श्रमण-जोवन स्वीकार कर लिया है ? शायद आप नहीं जानते कि मैं आपका साला हूँ ?"
यदि वह अपना राजकुल, अपनी त्याग-तपस्या, राज-परिवार के साथ रहे संबंध आदि का प्रदर्शन करते, साफ-साफ शब्दों में बता देते तब संभव था कि राजा शस्त्र त्याग कर और क्रोध को थक कर महामुनि के चरणों में झुक जाता ! नतमस्तक होते पल का भी विलम्ब न लगता ! लेकिन वे तो पूर्णतया निःस्पृह, त्यागी और तर स्वी थे ! अतः उन्होंने अपना परिचय परपुद्गलभाव के वशीभूत हो कर देना पसंद न किया ! बल्कि उनके लिए खोदे गये गड्डे में शांत भाव से ध्यानस्थ हो, राजा के शस्त्र-प्रहार को झेलना अधिक पसंद किया और सिद्धि-पद प्राप्त कर लिया !
अपने ही मुख से अपने बडप्पन की डिंग हांकना, खुद हो कर अपना गौरव-गान गाना, अपनी जबान से खद की सामाजिक प्रतिष्ठा के किस्से गढ़कर सुनाना और अपने कूल, वंश, पांडित्य तथा वरिष्ठता की स्तवना करना....यह नि:स्पृह मुनि के लिए सर्वथा अनुचित एवं अयोग्य है । यदि मुनि स्वप्रशंसा करता है तो समझ लेना चाहिए
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