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निःस्पृहता
वह अपने स्थान से हिला तक नहीं कर सकता ! क्यों कि स्पृहावन्त व्यक्ति बजन में हलका नहीं बनता, बल्कि स्व-व्यक्तित्व से हलका बनता है ! तब भला स्पृहावन्त को वायु क्यों उड़ा ले जाएगा ? वायु भी सोचता है !" ___"यदि इस भिखारी को ले जाऊँगा तो बार-बार यह भीख मांगेगा और विविध पदार्थों की याचना करेगा !' अतः वह भी उसे ले जाने में उत्सुक नहीं रहता !
__ यह कभी न भुलो कि स्पृहा करने से तुम दुनिया की नजर में हलके बनते हो । तुम्हारी गणना तुच्छ और प्रोछे लोगों में होती है ! साथ ही तुम्हें भव-सागर की उत्ताल तरंगों का भोग बनते पल की देर नहीं लगेगी !
गौरवं पौरवन्धत्वात प्रकृष्टत्वं प्रतिष्ठया !
ख्याति जातिगुणात् स्वस्य प्रादुष्कुर्यान्न निस्पृहः ॥६॥१४॥ अर्थ :- स्पृहारहित मुनि, नगरजनों द्वारा वंदन करने योग्य होने के कारण
अपने बड़प्पा को, प्रतिष्ठा से प्राप्त सवोत्तमता को, अपने उत्तम
जातिगुण से प्राप्त प्रसिद्धि को प्रकट नहीं करता है । विवेचन : जीवन में व्याप्त भनात्मरति/पुद्गलरति को जिस श्रमण ने तिलांजलि दे दी है, वह भला पौद्गलिक भावों पर आधारित गौरव, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा की क्या लालसा करेगा ? वह खुद होकर क्या उसका भोंड़ा प्रदर्शन करेगा ? नगरजनों द्वारा किये गये भावभीने अभिनदन,....राजा-महाराजादि सत्ताधीश और सज्जनों द्वारा दी गयी व्यापक मान्यता....उच्च कुल...महान् जाति और विशाल परिवार द्वारा प्रकट प्रसिद्धि....आदि सब महामना मुनि की दृष्टि में कोई मोल/महत्व नहीं रखते ! ब्रह्मोन्मत्त महात्मा की दृष्टि-नजर इन सबके प्रति निर्मम और नि:स्पृह होती है ।।
नागरिकों के द्वारा की गयी प्रशंसा-स्तवना और अर्चन-पूजन के माध्यम से मुनि अपना गौरव नही मानता । उसके मन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता । राजा-महाराजा और सर्वसत्ताधीश व्यक्तियों द्वारा दुनिया में गायो जानेवाली यशकथा के बल पर नि:स्पृह
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