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ज्ञानसार
बन कर रहना होगा ! उसके आगे दीन बन याचना करनी पड़ेगी । यदि याचना के बावजद भी नहीं मिले वे पदार्थ तो रोष अथवा रूदन का प्राधार लेना पड़ेगा ! प्राप्त हो गये तो राग और रति होगी ! परिणामस्वरुप दुःख ही दु:ख मिलेगा ! साथ ही यह सब करते हुए आत्मा- परमात्मा की विस्मति होते देर नहीं लगेगी। संयम - आराधना में शिथिलता आ जाएगी और फिर पुन:-पुनः भव - चक्कर में फंसना होगा !” इस तरह जीवन में होने वाले अंगणित नुकसान का खयालकर स्पृहा के भावों का निर्मूलन करना होगा !
जैसे भी संभव हो, जीवन में परपदार्थों की आवश्यकता को कम करना चाहिए ! पर पदार्थों की विपूलता के बल पर अपनी महत्ता अथवा मूल्यांकन नहीं करना चाहिए, बल्कि उनकी अल्पता में ही अपना महत्त्व समझना चाहिए !
० सदा - सर्वदा नि:स्पृह आत्माओं से परिचय बढाकर उसे अधिकाधिक दृढ करना चाहिए ! नि:स्पृह महापुरुषों के जीवन-चरित्रों का पुन:पुनः परिशीलन करना चाहिए !
० आवश्यक पदार्थों (गौचरी, पानी, पात्र, उपधि, वस्त्रादि) की भी कभी इतनी स्पृहा न करें कि जिसके कारण किसी के आगे दीन बनना पड़े, हाथ जोड़ना पड़े और गिड़गिड़ाना पड़े ! समय पर कोई पदार्थ न भी मिले तो उसके बिना काम चलाने की वृत्ति होनी चाहिए। तपोबल और सहनशक्ति प्राप्त करनी चाहिये !
छिन्दन्ति ज्ञानदारेण स्पृहाविषलतां धुधाः !
मुखशोषं च मूर्छा च दैन्यं यच्छति यत्फलम् ।।.३॥६१॥ अर्थ :- अध्यात्म-ज्ञानी पंडित पुरुष स्पृहा रूपी विष-लता को .न-रुपी
हसिये से काटते हैं, जो स्पृहा विपलता के फलरुप, मुख का सुखना,
मूर्छा पाना, और दीनता प्रदान करते हैं । विवेचन : यहाँ स्पृहा को विष-वल्लरी की उपमा दी गयी है ! स्पृहा यानी विष- वल्लरी ! यह विषवल्लरी अनादिकाल से- आत्मभमि पर निर्बाध रुप से फलती-फूलती और विकसित होती रही है ! आत्मभूमि के हर प्रदेश में वह विभिन्न रूप-रग से छायी हुई है। उस पर भिन्न-भिन्न स्वाद और रंग-बिरंगे फल-फूल लगते हैं ! लेकिन
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