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स्वभावलाभात् किमपि प्राप्तव्यं नावशिष्यते । इत्यात्मंश्वयसम्पन्नो निःस्पृहो जायते मुनिः ॥ १ ॥ ८३ ॥
ज्ञानसार
अयं :- आत्मस्वभाव की प्राप्ति के पश्चात् पाने योग्य कुछ भी शेष नही रहता है ! इस तरह आत्मा के ऐश्वयं से युक्त साधु स्पृहारहित बनता है ।
विवेचन : हे आत्मन् ! तुम्हें क्या चाहिये ? किस चीज की चाह है तेरे मन में ? किस अरमान और उमंगों के प्रधान हो कर तूं रात-दिन भटकता रहता है, दौड़-धूप करता रहता है ? कंसी झंखनाएं तेरे हृदय को विदीर्ण कर रही हैं ? क्या तुम्हें सोने-चांदी और मोतीमुक्ताओं की चाह है ? क्या तुम्हें गगनचुम्बी महल और आलिशान भवनों की अभिलाषा है ? क्या तुम्हें रुप-रुप को अम्बार देवांगनाओं सी वृन्द में खो जाना है ? क्या तुम्हें यश-कीर्ति की उत्तुंग चोटियां सर करनी है ? अरे भाई, जरा सोच समझ ओर ये सब अरमान छोड़ दे ! इस में खुश होने जैसी कोई बात नहीं है । न तो शांति है, ना ही स्वस्थता !
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मान लो की तुम्हें यह सब मिल गया, तुम्हारी सारी अभिलाषाएँ पूरी हो गयी ! लेकिन आकांक्षापूर्ति हो जाने के पश्चात् भी क्या तुम सुखो हो जानोगे ? तुम्हें परम शांति और दिव्यानंद मिल जाएगा ? साथ ही, एक बार मिल जाने पर भी वह सब सदैव तुम्हारे पास ही रहनेवाला है ? तुम उसे दोर्घावधि तक भोग सकोगे ? यह तुम्हारा मिथ्या भ्रम है, जिसके धोखे में कभी न आना ! अरे पागल, यह सब तो क्षणिक, चंचल, और अस्थिर है । भूतकाल में कई बार इसे पाया है..... फिर भी हमेशा दरिद्र हो रहा है, भिखारी का भिखारी | अब तो कुछ ऐसा पाने का भगीरथ पुरुषार्थ कर कि एक बार मिल जाने के बाद कभी जाएं नहीं ! जो अविनाशी है, अक्षय है, अचल है उसे प्राप्त कर ! यहो स्वभाव है, आत्मा का स्वभाव !
मन ही मन तुम दृढ संकल्प करलो कि 'मुझे आत्म-स्वभाव की प्राप्ति करना है और करके ही रहूँगा ! इसके अलावा मुझे और कुछ नहीं चाहिए ! विश्व - साम्राज्य का ऐश्वर्य नहीं चाहिए, ना ही आकाश से बात करतो आलाशान अट्टालिकाओं को गरज है ! अगर
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