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'ज्ञानसार
क्रियानुष्ठान करते समय इस बात से सतर्क रहना चाहिये कि वह अतिचारों से दूषित न हो जाये । मोह, अज्ञान, रस, ऋद्धि और शाता गारव, कषाय, उपसर्ग-भीरुता, विषयों का आकर्षणादि से अनुष्ठान दूषित नहीं होना चाहिये । इसकी प्रतिपल सावधानी बरतनी चाहिये। इस तरह दोष-रहित सम्यग् ज्ञानयुक्त, क्रियानुष्ठान के कर्ता और शुद्ध-बुद्ध स्वभाव के धनी भगवान को मेरा नमस्कार हो । कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि दोष-रहित क्रियानुष्ठान करने से आत्मा का शुद्ध-बुद्ध स्वरूप अपने आप ही प्रकट होता है । जबकि दोषयुक्त और ज्ञानविहीन क्रियायें करते रहने से आत्मा का शुद्ध-बुद्ध सहज स्वरूप प्रकट नहीं होता । लेकिन उससे विपरीत मिथ्याभिमान का ही पोषण होता है । फलतः भवचक्र के फेरों में दिन-दुगुनी रात चौगुनी वृद्धि हो जाती है । कर्म-निर्लेप होने के लिये ज्ञान-क्रिया का विवेकपूर्ण तादात्म्य साधना जबरी है ।
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