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ज्ञानसार से बाहर निकल आये । योगीराज को क्रिया से हैरान-परेशान बह सकते में आकर उनका मुंह ताकने लगा ।
वातावरण में नीरव शान्ति छा गयी । एक-दूसरे की धड़कनें साफ सुनायी दे रही थीं। पानी में रहने के कारण मनुष्य अधमरा हो गया था फिर भी कुछ नहीं बोला । तब शान्ति भंग करते हुए योगीराज ने गंभीर स्वर में प्रश्न किया !" मैंने जब तुम्हें पानी में डुवा दिया था, तब तुम किसलिये छटपटा रहे थे ?"
" हवा के लिये ।" " और छटपटाहट कैसी थी ?" " यदि ज्यादा समय लगता तो मेरे प्राण-पखेरू उड़ जाते । मैं ___ मर जाता।" . क्या ऐसी छटपटाहट परमात्मा के दर्शन की है ? जिस पल ऐसी छटपटाहट, तड़प का अनुभव होगा, उसी पल परमात्मा के दर्शन हो जायेंगे ।"
शुद्धिकरण हेतु ऐसी तीव्र लालसा पैदा होते ही, खुद जिस भूमिका पर है, उसी के अनुरुप वह ज्ञान अथवा क्रिया पर भार दें और शुद्ध होने के पुरुषार्थ में लग जायें ।
दोनों में से किसी को भी भूमिका के अनुसार प्राधान्य देना चाहिये । ज्ञान को प्राधान्य दो अथवा क्रिया को, दोनों ही बराबर हैं। छठे गुणस्थानक तक (प्रमत्तयति का गुणस्थानक) क्रिया को ही प्राधान्य देना चाहिये । लेकिन उसमें भी ज्ञान की सापेक्षता होना परमावश्यक है । ज्ञान को सापेक्षता का मतलब है, जो भी क्रिया की जाए, उसके पीछे ज्ञान-दृष्टि होनी चाहिये । ज्ञान की उपेक्षा अथवा अवज्ञा नहीं होनी चाहिये । जब कि व्यवहारदशा में क्रिया का ही प्राधान्य होता है, लेकिन यदि जीव एकान्त क्रिया-जड़ बन जाए, तो आत्मशुद्धि असंभव है । अतः उसमें भी ज्ञान-दृष्टि की आवश्यकता है । ठीक इसी प्रकार ध्यानावस्था में ज्ञान का प्राधान्य रहे, लेकिन भूलकर भी यदि जीव एकान्त ज्ञानजड़ बन जाए, तो आत्मशुद्धि नहीं होती। अतः वहाँ मावश्यक क्रियाओं के प्रति सजगता और समादर होना चाहिये । ।
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