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निले पता
पूर्णतया असमर्थ हैं, ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति न होगी । वे कपोलकल्पनाओं के प्राग्रही बन वास्तविक आत्मोन्नति के मार्ग से हमेशा के लिये विमुख बन जाते हैं । फलस्वरूप, जब तक अप्रमत्त दशा प्राप्त न हो तब तक अवरित रूप से आवश्यकादि क्रियाओं को करते रहना चाहिये । इन क्रियाओं के आलंबन से आत्मा प्रमाद की गहरी खाई में गिरने से बच जाती है। विभावदशा के प्रति रहा अज्ञान उसके मनोमन्दिर में प्रवेश नहीं कर सकता । 'श्री गुणस्थान क्रमारोह' में कहा है :
तस्मादावश्यक : कुर्यात प्राप्तदोषनिकृन्तनम् ।
यावन्नाप्नोति सद्धयानमप्रमत्तगुणाश्रितम् ॥३१।। सातवें गुणस्थान के सम्यग् ध्यान में यानी निले प-ज्ञान में जब तक तल्लीनता का अभाव हो, तब तक आवश्यकादि क्रियाओं के माध्यम से विषय-कषायों की बाढ़ को बीच में ही अवरूद्ध कर के हमेशा के लिये उसका नामोनिशान मिटा दो।
लिप्तता- ज्ञान अर्थात् विभाव दशा । कर्मजन्य भावों के प्रति मोहित होने की अवस्था । उसी लिप्तता-ज्ञान को नष्टप्रायः बनाने हेतु परमाराध्य उपाध्यायजी महाराज ने प्रावश्यक क्रियाओं का एकमेव उपाय बताया है । 'बाह्य क्रियाकांड से कभी आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं होती ।' कहने वाले महानुभाव जरा अपनी बुद्धि की मामिकता को कसौटी पर परख कर तो देखें । वे पायेंगे कि उत्साही वृत्ति से विषय -कषायों से युक्त सांसारिक क्रियायें सम्पन्न कर, अनात्मज्ञान को किस कदर दृढ़-सुदृढ़ कर दिया है ? क्या उसी ढंग से पाप-निंदाभित, प्रभुभक्तियुक्त, अभिनव गुणों की प्राप्तिस्वरूप प्रावश्यकादि क्रियायें करते हुए आत्मज्ञान दृढ़-प्रबल नहीं हो सकता ? अवश्य हो सकता है। यह असंभव नहीं, बल्कि सौ बार संभव है ! जिन्हों ने तर्क और विविध युक्तियों से मंडित अनेकविध उत्तमोत्तम ग्रंथों के अध्ययन - मनन-चिन्तन और परिशीलन में समस्त जीवन व्यतीत कर दिया था, ऐसे महापुरुष, ताकिक-शिरोमणि उपाध्यायजी महाराज के धीर-गंभीर वचन पर गंभीरता से विचार करना चाहिये । ठीक उसी तरह आवश्यकादि क्रियाओं के महत्त्व को समझना भी परमावश्यक है । वर्ना प्रमाद-वृत्ति उन्मत्त बनते देर नहीं लगेगी।
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