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तृप्ति
बिषयमिविवोद्गारः स्थावतृप्तस्य पुद्गलं । ज्ञानतृप्तस्य तु ध्यानसुधोद्गार - परम्परा ॥७॥७६॥
अर्थ :- जो पुद्गलों से तृप्त नहीं हैं, उन्हें विषयों के तरंग रूप जहर की डकार आनी है । ठीक उसी तरह जो ज्ञान से तृप्त हैं, उन्हें ध्यान रूप अमृत के डकारों की परंपरा होती है ।
विवेचन :- पुद्गल के परिभोग में तृप्ति ? एक नहीं, सौ बार असंभव बात है । तुम चाहे लाख पुद्गलों का परिभोग करो, उसमें लिप्त रहो, अतृप्ति की ज्वाला प्रज्वलित ही रहेगी । वह बुझने / शान्त होने का नाम नहीं लेगी । पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने 'अध्यात्म सार' ग्रंथ में कैसी युक्तिपूर्ण बात कही है !
विषयैः क्षीयते कामो नेन्धनेरिव पावक: । प्रत्युत प्रोल्लसच्छक्ति- भूयः एवोपवर्धते ||
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'आग में इन्धन डालने से आग शान्त होने के बजाय अधिकाधिक भड़क उठती है और उसमें से स्फोट ही होता है । ठीक उसी तरह सांसारिक पुद्गलों के भोगोपभोग से तृप्ति तो दूर रही, बल्कि अतृप्ति की ज्वालायें आकाश को छूने लगती हैं; जिसका अन्त सर्वनाश में होता है ।' इसी तरह पुद्गलों के अति सेवन से, भोजन है ) ऐसा अजीर्ण होता है कि उसके कारों की परंपरा निरन्तर चलती रहती है वह, बन्द नहीं होती ।
(जो पुद्गलभोजन विषअसंख्य विकल्प स्वरूप
कंडरिक ने पुद्गलसेवन की प्रति लालसा के वशीभूत होकर साधुजीवन का परित्याग किया। वह भागता हुआ राजमहल पहुँचा और अघीर बन उसने मनभावन स्वादिष्ट भोजन का सेवन किया । पेट भर कर खाया । तत्पश्चात् मखमली, मुलायम गद्दों पर गिरकर लौटने लगा । बचैनी से करवटें बदलने लगा । राज कर्मचारी एवं सेवकगण असतोष से विषभोजी कंडरिक को हेय दृष्टि से देखने लगे । मारे अजीर्ण के वह बावरा बन गया । उसे भयंकर हिंसक विचारों के डकार पर डकार आने लगे ।
परिणाम यह हुआ कि विषभोजन से उसे अपने प्राणों से हाथ घोना पडा और वह सातवीं नरक में चला गया ।
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